Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 1
Author(s): Vanshidhar Vyakaranacharya, Darbarilal Kothiya
Publisher: Lakshmibai Parmarthik Fund Bina MP

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Page 487
________________ ३०० जयपुर (खानिया) तत्वचर्चा और उसकी समीक्षा है उससे यह बात स्पष्ट है कि शरीरके सहयोगसे होनेवाली जीवकी यथायोग्य क्रियाका नाम ही व्यवहारधर्म है। इसका तात्पर्य यह है कि शरीरके अंगभूत हृदयके सहारेपर जीवको अपनी भाववती शक्तिके परिणमनस्वरूप जो अतत्त्वश्रदान हो रहा था उसकी सर्वथा समाप्ति होकर हृदयके सहारेपर ही भाववती पातिक परिणमनस्वरूप जो तत्त्ववद्वान होने लगता है यह व्यवहारसम्मग्दर्शनके रूपमें व्यवहारधर्म है। शरीरके अंगभूत मस्तिष्वाके सहारेपर जीवको अपनी भाववती शक्ति के परिणमनस्वरूप जो अतत्त्वज्ञान हो रहा था उसकी सर्वश्वा समाप्ति होकर मस्तिष्कवे सहारेपर ही भाववती शक्तिके परिणमनस्वरूप जो तत्त्वज्ञान होने लगता है वह व्यवहारसम्यग्ज्ञानके रूप में व्यवहारधर्म है। एवं शरीरके अंगभूत मन, वचन और कायके सहारेपर जीवका अपनी क्रियावती शक्तिके परिणमनस्वरूप जो अशुभ कियाव्यापार हो रहा था उससे यथायोग्य निवृत्तिपूर्वक मन, वचन और कायके सहारेपर ही क्रियाक्ती शक्तिके परिणमनस्वरूप जो शुभ कियाध्यापार होने लगता है वह व्यवहारसम्यक्वारित्रके रूपमें व्यवहार है। प्रसंगवश यहाँ मैं यह स्पष्ट कर देना चाहता हूँ कि शरीरका अंगभूत मन ही हृदय और मस्तिष्कके भेदसे दो प्रकारका है, इसलिये इस समीक्षामें जहाँ मनके सहारेपर होनेवाले जीवको भाववती शक्तिके परिणमन्नोंका कथन किया गया है वहाँ उन परिणमनोका कथन मनको हृदय और मस्तिष्क दो भागों में विभक्त करके पृथक-पृथक रूप में किया गया है। इसमें हेतु यह है कि जीवकी भावनती शक्तिके हृदयके सहारेपर होनेवाले तत्वश्रद्धान और अतत्त्वथद्धानरूप परिणमन अन्य है व जीवकी भाववती शक्तिके ही मस्तिष्कके सहारेपर होनेवाले तत्त्वज्ञान और अतत्त्वज्ञानरूप परिणमन अन्य है। यतः इस प्रकारका अन्यपना हृदय और मस्तिष्कके सहारेगर होनेवाले जीवक्री क्रियावती शक्ति के नियाव्यापाररूप परिणमनोंमें नहीं पाया जाता है। अतः इस समीक्षामें जहाँ हृदय और मस्तिष्कके सहारेपर होनेवाले क्रियावती शक्तिके क्रियान्यापाररूप परिणमनोंका कथन किया गया है वहाँ उन क्रियाव्यापाररूप परिणमनोंका कथन हृदय और मस्तिकके सहारेपर पृथक्-पृथक् रूपमें महीं करके उक्त दोनों प्रकारसे होनेवाले उन परिणमनोंका कथन हृदय और मस्तिष्कसे अभिन्न मनके सहारेपर ही किया गया है। (२) उत्तरपक्षको दूसरी मान्यता यह है कि व्यवहारधर्म जीबके लिए निवचयधर्मकी प्राप्ति होने में किचित्कर न होकर अकिंचिकर ही बना रहता है । मह मान्यता इस आघारपर निरस्त होती है कि इस समीक्षा में जीव होनेवाली निश्चयधर्भवी उत्पत्तिमें व्यवहारधर्मको मिट्टीमें होनेवालो घटोत्पत्ति में स्थास आदि पर्यायोंके समान सहायक होने रूपसे कार्यकारीही सिद्ध किया गया है। (३) उत्तरपक्षकी तीसरी मान्यता यह है कि व्यवहारधर्म निश्चयधर्म की उत्पत्ति में असद्भूतव्यवहारकारण होता है। __ यह मान्यता इस आधारपर निरस्त होती है कि इस समीक्षामें व्यवहारधर्मको यतः निश्चयधर्मके समान जीवका ही परिणाम सिद्ध किया गया है, अतः जिस प्रकार घटोत्पत्तिमें मिट्टीको स्थास जादि पर्याय मिट्टी के परिणाम होने से सद्भूतव्यवहारकारण होती हैं उसी प्रकार व्यवहारधर्म भी जीवका परिणाम होनेसे निश्चवधर्मकी उत्पत्तिमें सद्भूतव्यवहारकारण ही सिद्ध होता है । असद्भूतव्यवहारकारण नहीं । ४. उत्तरपक्षको चौथी मान्यता यह है कि मिट्टी से होनेवाली घटोत्पत्तिमें स्थाससे लेकर कुशूल पर्यन्त

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