Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 1
Author(s): Vanshidhar Vyakaranacharya, Darbarilal Kothiya
Publisher: Lakshmibai Parmarthik Fund Bina MP

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Page 490
________________ - -- शंका-समाधान ४ की समीक्षा ३०३ चरित और उपचरितोपचरित सद्भूतम्यवहारनयोंका विषय निश्चित हो जानेसे के अनुपचरित, उपचरित और पसार पनि तयारमा कथनमात्र नहीं है। एवं उसी घटकार्मके प्रति उपादानकारण रूप मिट्टीसे भिन्न कुम्भकार, चक्र और दण्ड रूप वस्तुओंमें पूर्व में जो अनुपचरित, उपचरित और उपचरितोपपरित रूपसे प्रेरक रूपमें सहायक होने रूप असद्भूवम्पवहारकारणता मतलाई गई है वह वहाँ क्रमशः अनुपचरित, उपवरित और उपचरित्तोपचरित असद्भूतव्यवहारनयोंका विषय निश्चित हो जानेसे वे अनुपचरित, उपचरित और उपचरितोपचरित असद्भूतव्यवहारनय भी कथनमात्र नहीं है । यही यह ज्ञातव्य है कि सद्भूतव्यवहारनय और असद्भूतव्यवहारनय तथा इनके क्रमशः विषयभूत सद्भूतव्यवहारकारणता और असद्धृतव्यवहारकारणताक्री परम्परा उपचरितोचरितोपचरित मादिके रूप में अनुपचरित, उपवरित और उपचरितोपचरितके आगे भी वहाँ तक मानी जा सकती है जहाँ तक सम्भव हो। यहां यह भी ज्ञातव्य है कि कार्यके प्रति नित्य निश्चयकारण तो कार्यरूप परिणत होने की स्वभावभूत स्वतः सिद्ध योग्यता विशिष्ट जनादान कारणभूत वस्तु ही होती है व अनित्य निश्चयकारण उस निस्म निश्चयकारणभूत वस्तुकी कार्यभूत पर्यायसे पूर्ववर्ती पोगोंसे विशिष्ट वही उपादानकारणभूत वस्तु होती है । तथा उस नित्य निश्चयकारणभूत वस्तुको कार्यभूत वस्तुसे पूर्ववर्ती वै पयार्य पूर्वोक्स प्रकार अनुपचरित, उपचरित और उपचरितोगचरित आदिक रूपमें सद्भूतव्यवहारकारण होती हैं । एवं कार्यके प्रति नित्य निश्चयकारणभूत वस्तुसे पृयन वे वस्तुएँ अनुपचरित, उचपरित और उपचरितोपचरित आदिक रूपमें असद्भूतव्यवहारकारण होती है जो निय निश्चयकारणभूत नस्तुको कार्यरूप पर्यायकी और उस कार्यरूप पर्यायसे पूर्ववर्ती पर्यायोंकी उत्पतिमें प्रेरक अथवा अप्रेरक रूपसे सहायक होती हैं। इनमेंसे नित्य निश्चय कारणको कार्योत्पत्तिमें सर्वथा भूताचं कारण समझना चाहिए, क्योंकि नित्य निश्चयकारण कार्योत्पत्ति में सद्भूतव्यवहारणकारणरूप उक्त पर्यायों में और कार्यभूत पर्यायमें भी प्रविष्ट रहता है । तथा कार्योत्पत्ति में सद्भूतव्यवहारकारणभूत उक्त पर्यायों को भी यद्यपि भूतार्थ कारण ही समझना चाहिए, क्योंकि वे पर्याय नित्य निश्चयकारणभूत वस्तुकी ही पर्याय है, परन्तु उन पायों का प्रवेश कार्यरूप परिणतिमें नहीं होता क्योंकि जैन शासनमें पूर्व-पूर्व पर्यायका विनाश होकर ही उत्तर-उत्तर पर्यायको उत्पत्ति मान्य की गई है। अतः उन पर्यायों को कथंचित् अभूतार्थ भी समझना चाहिए । इनके अतिरिक्त कार्य के प्रति नित्य निश्चगकारणभूस वस्तुसे पृथक् जो वस्तुएँ उन सद्भूत व्यवहारकारणभूत और कार्यभूत पर्यावोंकी उत्पत्तिमें प्रेरक अथवा अप्रेरक रूपसे नित्य निश्चयकारणभूत वस्तुको अपना सहयोग मात्र प्रदान करती है उन वस्तुओंको अभूतार्थ कारण समझना चाहिए । इस तरह इस विवेचनसे यह बात अच्छी तरह स्पष्ट हो जाती है कि कार्योत्पत्तिके प्रति साधक रूपसे उपयोगी नित्य निश्ववकारणताको विवश करनेवाला निश्ववनय जिस प्रकार कथनमात्र नहीं है उसी प्रकार उस कापोत्पत्ति के प्रति सावक रूप से उपयोगी अनुपवरित, उपवरित और उपवरितोपचरित आदि रूप सदभतरूपवहारकारणताको विषा करनेवाला अनपवरित उपवरित और उपचरितोपवरित आदि रूप सद्भूतम्यवहारनय एवं कार्योत्पत्तिके प्रति साधक रूपसे उपयोगी अनुपचरित, उपचरित और उपचरितोपपरित आदि रूप असदभतब्यबहारकारणताको विषय करने वाला अनुपचरित, उपचरित और उपचरितोपचरित असहारा दानांना भाकपनमात्र नहीं है।

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