Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 1
Author(s): Vanshidhar Vyakaranacharya, Darbarilal Kothiya
Publisher: Lakshmibai Parmarthik Fund Bina MP
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रणानयाग वहह।
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जयपुर (खानिया) तत्त्वचर्चा और उसकी समीक्षा ही द्रव्यानुयोग, करणानुयोग, चरणानुयोग और प्रयमानुयोगके रूपमें चार भेद मान्य किये गये हैं । इनके स्वरूपको पृथक-पृथक् निम्नप्रकार समझा जा सकता है
(१) द्रव्यानुयोग वह है जिसमें अध्यात्मको लक्ष्यमें रखकर जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल नामके पदार्थोंको स्वीकार करके उनके स्थत सिद्ध अतएव अनादि, अनिधन, स्वाश्रित और अखण्डस्वरूप एवं उनके स्वप्रत्यय और स्वपरप्रत्यय परिणमनोंका विवेचन किया गया हो। इस अनुयोगको वस्तुविज्ञान भी कह सकते हैं । इसमें वस्तुतत्वके व्यवस्थापक समस्त दर्शनशास्त्रका अन्तर्भाव होता है।
वह है जिसमें जीवोंके संसारका और उसके कारणभूत कोंके उदयमें होनेवाले उपके शुभ-अशुभ परिणामों तथा जीवोंके मोक्ष और उसके कारणभूत कोके यथासंभव उपशम, क्षय और क्षयोपशममें होनेवाले उनके शुद्ध परिणमनोंका एवं उन कोंके आस्रव और बंध तथा संदर और निर्जरणका विवेचन किया गया हो । इसम धवल, जयधवल, महाववल, जीवकाण्ड, कर्मकाण्ड, लब्धिसार और क्षपणासार आदि अन्योंका अन्तर्भाव होता है।
(३) चरणानुयोग वह है जिसमें ज्ञानावरणादि कर्मक आस्रव और वन्धमें कारणभृत जीवोंके व्यवहारमिथ्यावर्षन, व्यवहारमिथ्याज्ञान और व्यवहारमिथ्याचारित्ररूप असम्यक् पुरुषार्थका व उन कोक संवर और निर्जरणमें कारणभूत जीवोंके व्यवहारसम्यग्दर्शन, व्यवहारसम्यग्ज्ञान और व्यवहारसम्यक्चारित्ररूप सम्यक् पुरुषार्थका विवेचन किया गया हो । इसमें धावकधर्म और मुनिधर्मके प्रतिपादक ग्रन्थोंका अन्तर्भाव होता है।
(४) प्रथमानुयोग वह है जिसमें अध्यात्मको लक्ष्यमें रखकर जीवोंको असम्यक् पुरुषार्थके त्यागपूर्वक सम्यक् पुरुषार्थमें प्रवृत्त होनेकी प्रेरणा देनेवाले महापुरुषोंके जीवनवृत्तों और ऐसे ही कथानकोंका प्रतिपादन किया गया हो । इसमें महापुराण, हरिवंशपुराण, पद्मपुराण आदि पुराण-साहित्यका व कथा-साहित्यका अन्तर्भाव होता है।
चारों अनुयोगोंके इस पृथक्-पृथक् स्वरूपनिर्धारणसे यह बात स्पष्ट हो जाती है कि इनका अध्यात्मक साथ जो संबंध है वह पृथक्-पृथक् रूप में ही है । अर्थात् द्रव्यानुयोग जीवोंके लिए केवल आत्मस्वरूपकी पहिचानकरने में सहायक है, करणानुयोग जीवोंको उनके उत्थान और पतनका बोध कराता है, चरणानुयोग जीवोंके उत्यान और पतनमें कारणभूत उनके पुरुषार्थोका निर्देश कराता है और प्रथमानुयोग जीवोंको पतनके कारणभूत पुरुषार्थोको त्यागकर उत्थानके कारणभूत पुरुषार्थ में प्रवृत्त होनेकी प्रेरणा देता है । इससे स्पष्ट हो जाता है कि पूर्वपक्षद्वारा निश्चघमका प्रतिपादक करणानुयोगको मान्य किया जाना असंगत नहीं है, क्योंकि निरषयसम्पग्दर्शन, निश्चयसम्यग्ज्ञान और निश्चयसभ्यचारित्रका नाम ही निश्चयधर्म है और ये निश्यसम्यग्दर्शन, निश्चयसम्यग्ज्ञान और निश्चयराम्यक् चारित यथायोग्य कमाके संवर और निर्जरणपूर्वक हो जीवमें प्रगट होते है। इसी तरह यह भी तथ्य है कि जैन साहित्यमें जीब, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल नामके द्रव्यों के रूपमें जितना विवेचन पाया जाता है वह पथक है व जी. अजीय. आस्रव बन्ध. संवर. मिर्जरा और मोक्ष नामके तत्वोंके रूपमें जितना विवेचन पाया जाता है वह पृथक् है। अर्थात् द्रवरूप विवेचनको वस्तुविज्ञान कहना युक्त है और तत्त्वरूप विषेचनको अध्यात्मविज्ञान कहना युक्त है। इस तरह द्रव्यानुयोग और करणानुयोगके उपर्युक्त स्वरूप-विवे वनके अनुसार वस्तुविज्ञानको द्रमानुयोग कहना युक्त है और अध्यात्मविज्ञानको