Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 1
Author(s): Vanshidhar Vyakaranacharya, Darbarilal Kothiya
Publisher: Lakshmibai Parmarthik Fund Bina MP

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Page 484
________________ पांका-समाधान ४ की समीक्षा २९७ परम्परया असद्भूतकारण होनेसे उपचरितअसद्द्भूतव्यवहारकारण है और दण्ड दुहरी परम्पराके रूपमें असद्भूत व्यवहारकारण होनेसे उपचरितोषचरित असद्द्भूतव्यवहारकारण है। तथा इस आधारपर कुम्भकारमें विद्यमान अनुपचरितअसद्द्भूतव्यवहारकारणता अनुपचरितअराद्भूतव्यवहारनयका विषय होती हैं । चक्र में विद्यमान उपचरितअसद्भूतव्यवहारकारणता उपचरितभसद्भूतव्यवहारनयका विषय होती है और दण्डमें विद्यमान उपचरितोषचरितअसद्भूतव्यवहारणकारणता उपचरितोपत्र रितअसद्भूतव्यवहानयका विषय होती है, ऐसा जानना चाहिये । यसः ऊपर यह बात स्पष्ट कर दी गई है कि घटोत्पत्ति के अवसर पर मिट्टी में स्थाससे लेकरघटपर्यंन्त स्थास, कोश, कुशूल और घटके रूपमें जितनी स्थूल और उनमें अन्तर्मन सूक्ष्म पर्वायोंका क्रमशः विकास होता है उस विकासको प्रक्रिया तब तक ही चालू रहती है जब तक उस मिट्टीको कुम्भकार के तदनुकूल क्रियाव्यापारका सहयोग प्राप्त रहता है। अस: इस आधारपर यह निर्णीत होता है कि मिट्टीका वटपर्याय से अव्यवहित पूर्वरूप परिणमन हो जाने पर भी यदि कुम्भकार अपना तदनुकूल क्रियाव्यापार करना बन्द कर देता है तो उस स्थितिमें घटकी उत्पत्ति भी रुक जाती है । फलतः उत्तरक्षकी यह मान्यता कि "मिट्टी जब घटक अभ्यवहित पूर्वपर्ययरूप परिणत हो जाती है तो पटकी नियम उत्पत्ति होती है" निरस्त हो जाती है। (४) व्यवहारघर्मके विषय में और उसका निश्चयधर्म व मोक्षके साथ यथायोग्य पृथक-पृथक रूपमें स्वीकृत साध्य-साधकाभाव के विषयमें प्रकृत प्रश्नोत्तरको समीक्षा में अब तक जो कुछ कहा गया है उससे उत्तरपक्ष द्वारा त० च० पृ० १४५ ये पृ० १५७ तक आगे जितना कथन किया गया है उसको भी समोक्षा हो जाती है, क्योंकि उस कथनमें उतरपक्षने अपनी "व्यवहारधर्म निश्चयधर्म में साधक नहीं है, इस मान्यताके समर्थन में ऐसी कोई नई बात नहीं कहीं है जिसकी अलग से समीक्षा करना आवश्यक हो । इतनी वात अवश्य है कि उसने त० च० पृ० १५६ पर यह विशेष कथन किया है कि "अपरपक्षका कहना है कि निश्चयधर्मका प्रतिपादक करणानुयोग है । यह बात नही है, क्योंकि निश्चयधर्मका कथन मुख्यतः ग्रन्यानुयोगका विषय है !" तथा अपने इस कथन के समर्थन में उसने वहीं पर रत्नकरण्ड श्रावकाचार के पद्य ४६ को भी उपस्थित किया है जिसमें यह बतलाया गया है कि ब्रव्यानुयोग जीव और अर्जीव सुतत्त्वोंको तथा पुण्य और अपुण्य (पाप) को एवं बन्ध और मोक्षको विद्या आलोक (प्रकाश) के अनुरूप विस्तारता है ।" आगे उत्तरपक्ष के उक्त कथनको समीक्षा की जाती है आगमको लौकिक और अध्यात्मिक दो भागों में विभक्त किया जा सकता है । इनमेंसे लौकिक आगम जीवोंके लौकिक हितसे सम्बन्ध रखता है और अध्यात्मिक आगम जीवोंक अध्यात्मिक हितसे सम्बन्ध रखता हूँ | एवं लौकिक और अध्यात्मिक दोनों हो प्रकार के आगम प्रमाण और अप्रमाणके भेदसे दो-दो प्रकारके होते हैं। इनमें से जो लोकिक आगम जीनोंके लौकिक हितके विषयोंका सम्यक् प्रतिपादन करने में समर्थ और अचक पुरुषोंद्वारा रचा गया हो वह प्रमाण है व जो लौकिक आगम जीवों के लौकिक हिलके विषयोंका सम्यक् प्रतिपादन करने में असमर्थ है और तंत्रक पुरुषोंद्वारा रचा गया हो वह अप्रमाण है। इसी तरह जो आध्यात्मिक. आगम जीवोंके आध्यात्मिक हित के विषयोंका सम्वक् प्रतिपादन करतेमें समर्थ है तथा अवचक पुरुषोंहारा रवा गया हो वह प्रमाण है व जो आध्यात्मिक आगम जीवोंके आध्यात्मिक विषयोंका सम्यक् प्रतिपादन करमेमें असमर्थ और वंचक पुरुषोंद्वारा रचा गया हो वह अप्रमाण है । जैन संस्कृति में प्रमाणभूत आध्यात्मिक आगमके स०-३८

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