Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 1
Author(s): Vanshidhar Vyakaranacharya, Darbarilal Kothiya
Publisher: Lakshmibai Parmarthik Fund Bina MP

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Page 471
________________ २८४ जयपुर (खानिया) तत्त्वचर्चा और उसकी समीक्षा धर्मको सापेक्ष स्वीकृति हो सिद्ध होती है जिसका आशय यह है कि मोक्षमार्ग में प्रवन जीवको व्यवहारधर्म उपयोगी तो है परन्तु तभी तक उपयोगी है जबतक वह जोव स्वभावमें स्थिर नहीं होता । जीय स्वभावमें स्थिर तभी होता है जब यह स्वभावमें स्थिर होनेके अनुकूल पुरुषार्थ करता है और जीवको दृष्टि अबतक व्यवहारधर्मको ओर है तबतक वह स्वभावकी ओर अग्नतर नहीं हो सकता है। इस तरह स्वभावकी आराघनाके कालमें अर्थात स्वभाव स्थिरता प्राप्त करने के लिा पुरुषार्थ करते समय जीवको ब्यवहारधर्मकी ओरसे दृष्टि हटाने की आवश्यकता है। लेकिन इसका यह आशा नहीं कि व्यवहारधर्म मोक्ष प्राप्तिके लिए उपयोगी नहीं है, क्योंकि जबतक जीव स्वभावको ओर अग्रसर नहीं होता तबतक उसे व्यवहारधर्म पालनमें भी सजग रहना आवश्यक है। इसमें हेतु यह है कि वह जीव स्वभावकी ओर अग्रसर न होने के कालमें भी यदि व्यवहारधर्मकी उपेक्षा करता है तो वह स्वभावमें तो स्थिर होगा नहीं, साथ ही व्यवहारधर्मसे चपुत होकर अपने अनन्त संमारको ही वृद्धि करेगा। वास्तवमें आगमके अनुमार मोक्षप्राप्तिकी पूर्वोक्त प्रकार यह प्रक्रिया है कि जीय प्रारम्भमें तो विपरीताभिनिवेश और मिथ्याजानके आधारपर आसक्तिवश संकल्पी गापमय प्रवृत्ति हो किया करता है और कदापित साथ संसारिक स्वार्थवश पुण्यमय प्रवृत्ति भी करता है। परन्तु वह जीव उस पुण्यमय प्रवृतिको पदि सम्यक अभिनिवेश और सम्यग्ज्ञान पूर्वक कर्तव्यबश करने लग जाता है तो इस आधार पर उसे उस संकल्पी पापमय प्रवृत्तिसे घृणा हो जाती है । फलतः वह जीव तब उस संकल्पी पापमय प्रवृत्तिका सर्वथा त्यागकर अशक्तियश आरम्भी पापमय प्रवृत्ति करते हुए नियमसे कर्तव्यवश पुण्यमय प्रवृति किया करता है । धर्मका प्रारम्भिक रूप यही है और इस व्यवहारधर्म बलपर ही वह जीव अपने अन्दर क्षयोपशम, विशुद्धि, देशना और प्रायोग्य लब्धियोंका विकास कर लेता है। इतना ही नहीं, यदि वह भव्य हुआ तो वह इन चारों लब्धियों के विकासके पबचात आत्मोन्मखतारूप करणलब्धिका विकास भी अपने अन्दर कर लेता है। इस तरह करणलब्धिको प्राप्त वह भन्ध जीव प्रथमतः मोहनीयके भेव दर्शनमोहनोयकर्मकी यथासम्भव रूपमें विद्यमान मिथ्यात्व, सम्बमिथ्यात्व और सम्यक्त्वप्रकृति रूप तीन व मोहनीयकर्मके ही प्रथम भेद चारित्रमोहनीयकर्मक प्रथम भेद अनन्तानुबन्धी कपायको नियममे विद्यमान क्रोध, मान, माया और लोभ रूप चार इस तरह सात प्रकृतियों के यथायोग्य उपशम, सय या क्षयोपदाम पूर्वक चतुर्थ गुणस्थानके प्रथम समयमें सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान के रूपमें निश्चयधर्मको प्राप्त करता है । इसके पश्चात् वह जीव यथाशक्ति आरम्भी पापमय प्रवृत्तिके एकदेश त्यागके साथ कर्त्तव्यवंश पुण्यमय प्रवृत्तिरूप व्यवहारचर्मके बलपर उपर्युक्त क्रमसे चारित्रमोहनीयकर्मक हितीय भेद अग्रत्याख्यानावरण कषावकी नियमसे विद्यमान क्रोध, मान, माया और लोभ प्रकृतियोंका क्षयोपशम होनेपर पंचम गुणस्थानके प्रबम समयमें देशविरतिरूप निश्चयसभ्यक्चारित्रको प्राप्त करता है । इसके भो पश्चात् वह जीव शक्तिके अनुसार उस आरम्भी पापमय प्रवृत्तिके सर्वदेश त्याग के साथ पुण्यमय प्रवृत्ति रूप व्यवहारधर्मके बलपर ही उपर्युक्त कमसे चारित्रमोहनीयकर्मके तृतीय भेद प्रत्याख्यानावरण कषायको नियमसे विद्यमान कोव, मान, माया और लोभ प्रकृतियोंका अयोपशम होनेपर सप्तम गुणस्थानके प्रथम समयमें रावनिरति रूप निश्चयसम्यवचारित्रको प्राप्त करता है। यह सप्तम गुणस्थानवर्ती जीव अन्तर्महर्त काल तक ही सप्तम गणस्थान में रह सकता है, क्योंकि उसमें वहाँ स्थिर रहनेकी दृढ़साका अभाव रहता है, इसलिये उसका पतन होना अवश्यंभावी है । इस तरह गिरकर वह षष्ठ गुणस्थानमें आ जाता है। इस षष्ट गुणस्थानवी जीवको व्यवहारधर्ममें सजग रहनेका उपदेश आगममें है क्योंकि षष्ठ

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