Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 1
Author(s): Vanshidhar Vyakaranacharya, Darbarilal Kothiya
Publisher: Lakshmibai Parmarthik Fund Bina MP

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Page 475
________________ २८८ जयपुर (खानथिा) तत्त्वचर्चा और उसकी समीक्षा उसने अपने प्रथम और द्वितीय दौरों में अपनाया था। अतः प्रथम और द्वितीय दौरोंकी समीक्षासे ही प्रायः उसके तृतीय दौरकी समीक्षा हो जाती है । फलतः यहाँ उसकी समीक्षा मथावश्यक रूपमें ही की जाती है। उत्तरपक्षके "उपसंहार" शीर्षकसे किये गये विवेचनको समीक्षा उत्तरपक्षने अपने तृतीय दौरके आरम्भमें त. च० पृ. १४४ पर “उपसंहार" शीर्षकसे जो विवेचन किया है उसकी समीक्षाके प्रशंगमें यहाँ इतना स्पष्ट करना आवश्यक है कि जहाँ उत्तरपक्षने अपने द्वितीय दौरमें व्यवहारधर्मको निश्चयधर्मका सापक असद्भूत-व्यवहारनपसे बतलाया है वहां पूर्वपक्षने अपने तृतीय दौर में व्यवहारधर्मको निश्चयधर्मका सापक सद्भूतव्यवहारनयसे बतलाया है। उत्तरपक्ष व्यवहारधर्मको निश्चयधर्मका साधक असद्भूतव्यवहारनवमे क्यों मानता है और पूर्वपक्ष व्यवहारधर्मको निश्चयधर्मका साधक सद्भुतव्यवहारनयसे क्यों मानता है इन दोनों बातों को द्वितीय दौरकी समीक्षामें स्पष्ट किया जा चुका है अर्थात उत्तरपक्ष जीवके राहायोगसे होनेवाली शरीरकी यथायोग्य क्रियाको व्यवहारधर्म मानता है, अतः उसकी दृष्टिमें व्यवहारधर्म निश्चयधर्मका माधक असद्भुतव्यबहारनयसे सिद्ध होता है । तथा पूर्वपन शरीरके सहयोगसे होनेवाली जीवकी यथायोग्य क्रियाको व्यवहारचर्म मानता है, अतः उनकी दृष्टिमें व्यवहारधर्म निश्चयधर्मका सापक सद्भूतव्यबहारनवसे सिद्ध होता है। दोनों पक्षोंकी इन मान्यताओं से पूर्वपक्षको मान्यता ही सम्यक है, इस बातको प्रश्नोत्तर २ की समीक्षासे समझा जा सकता है। अब यहा नललाना जा रहा है निः पूर्भपा दावहारधर्मको निश्चयधर्मका साधक सद्भूतस्यवहारनपसे इसलिये मानता है कि मोहनीयकर्मको उन-उन प्रकृतियों का अथास्थान यथायोग्य उपशम, क्षय या क्षयोपशम होनेपर जीवको भावनती शक्तिका जो शुद्ध स्वभावभूत परिणमन होता है उसे आगममें यथायोग्य निश्चयसम्यग्दर्शन, निश्चपराम्परज्ञान और निश्चयसम्यक्वारित्ररूप निश्चयधर्म कहा है व आगममें यह भी कहा है कि हृदयके सहारेपर जीवको भावयत्री शक्तिका अतत्त्वश्रद्धानरूप अशुभ परिणमनकी समाप्तिपूर्वक जी तत्त्वश्रद्धानरूप शुभ परिणमन होता है यह व्यवहारसम्यक् दर्शन है। तथा मस्तिस्कके सहारेपर जोवकी भावनती शक्तिका अतत्वज्ञानरूप अशुभ परिणमनकी समाप्तिपूर्वक जो तत्त्वज्ञानाप शन एरिणमन होता है वह व्यवहारसम्बज्ञान है । एवं जीवकी भाववती पाक्तिके तत्त्वज्ञान और तत्त्वज्ञानरूप उक्त शभ परिणमनोसे प्रभावित जीवकी नियावती शक्तिका मानसिक, वाचनिक और कायिक अशुभ प्रवृत्ति से मनोगुप्ति, वचनगुप्ति और कायगुप्तिरूप निवृत्तिपूर्वक जो शुभ प्रवृत्तिरूप परिणमन होता है वह व्यवहारराम्यचारित्र है । इस तरह व्यवहारधर्म निश्चयधर्मसे भिन्नताको प्राप्त होकर मी निश्चयधर्मके समान जीयका परिणाम सिद्ध होनेसे उसे पूर्वपक्ष द्वारा निश्चयधर्मका साधक सद्भूतव्यवहारनपसे बतलाना युक्त है ।। ___ उत्तरपक्षने अपने उक्त विवेचनमें जो वह कहा है कि "व्यवहारमोक्षमार्ग निश्चयमोक्षमार्गका सहचर होनेसे अनुकूल है, इसलिये इसमें मोक्षमार्गके साधकपनेका व्यवहार किया जाता है ।" इसके संबंध में द्वितीय दौरकी समीक्षा, स्पष्ट कर चुका हूँ कि घ्यवहारमोक्षमार्ग निश्चयमोशमार्गका साधक सहचरताके आधारपर मान्य न होकर निश्चयोक्षमार्गकी उत्पत्तिमें सहायक होनेके आधारपर ही मान्य है। इसी तरह उत्सरपक्षने अपने उक्त कथनमै व्यवहारमोक्षमार्गमें निश्चयमोक्षमार्गक साधकपनका व्यवहार अनुकुलताके आधारपर करने की जो बात कही है इससे तो व्यवहारमोक्षमार्गका निश्चयमोक्षमार्गके प्रति साधकपना उत्तरपक्षको मान्य कल्पित अर्थात् आकाशकुसुमकी तरह सर्वथा असद्रूप सिद्ध न होकर पूर्वपशको मान्य सद्प ही सिद्ध होता है, क्योंकि अनुकूलशब्दके प्रचलित अर्थ के अनुसार व्यवहारमोक्षमार्ग निश्चममार्गकी उत्पत्तिमें सहायक होने

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