Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 1
Author(s): Vanshidhar Vyakaranacharya, Darbarilal Kothiya
Publisher: Lakshmibai Parmarthik Fund Bina MP

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Page 479
________________ २९२ जयपुर (खानिया) तत्त्वचर्चा और उसकी समीक्षा आगम प्रमाणों में हारकर्मको निश्चयत्रका सावक असद्भूत व्यवहारनयसे ही कहा गया है। सी इससे तो यही निर्णत होता है कि दोनों के मध्य निश्चय और व्यवहार मोकामागोंमें स्वीकृत साध्य साधकभावको व्यव हारन मान्य करनेमें विरोध नहीं है क्योंकि उस साध्य साधकभावको पूर्वपक्ष भी निश्चयनयसे नहीं मानता है । इस दोनों पक्षोत्रे मध्य विरोध केवल इस बातका है कि जहाँ पूर्वपक्ष व्यवहार और निश्वय दोनों में स्वीकृत गाय भाव सद्भूतव्यवहारनवसे मानता है वहाँ उत्तरपक्ष उस साध्य-राध्यक भावको समापने गानता है। इसलिये केवल यहीं बात विचारणीय रह जाती है कि उस गों तमनं स्वीकृन् राज्य-सायकमायको असद्द्भूतव्यवहारनपसे माना जाये या सद्भूतभ्यवहारयसे माना जाये या दोन हो उप माना जायें ? इन तीन विकल्पों में से कौन-सा विकल्प प्रमाणसम्मत है, इसका निर्णय यहां सवार गाथा ५१. ९५ और ८७ के आधारपर किया जाता है । है कि मिध्यात्व अज्ञान, यह बतलाया गया है कि सारगामा ५१ में कहा गया है कि राग, द्वेष और मोह जीवके नहीं हैं और गाथा ५५ में गुष्ट कर लिया गया है कि पुद्गल है। परतु गाधा ८७ में यह बतलाया अरिति माह और क्रोध आदि भाव जीवके हैं। इनमें गाथा ५१ में जो राग द्वे के नहीं है। अभिप्राय यह है कि युद्धयकी दृष्टिसे विचार किया जाये तो राग द्वेग और मोह जीवके नहीं हैं अर्थात् वे जीवके अखण्ड चैतन्य समान स्वतः सिद्ध अनादिनिधन स्वभावभुत नहीं है। ना गाथा ५ में जो यह बतलाया गया है कि राग, द्वेष और मोह वृद्गल के हैं । इसका अगद्गृत अवहार पुद्गल है अर्थात् पुद्गलकर्मक उदयकी महायनारी ही जीवन है और माया ८७ में जो यह बताया गया है कि राग, द्वेष और मोह जीवके है | इनका वायं हि सद्भूत व्यवहारजयसे जीवके हैं अर्थात् पुद्गलवार्म के उदयकी सहायता मात्र मिलनंबर परिणत होता है । इसी तरह जिस प्रकार विश्चय जीवका स्वाश्रित परिणमन है उनान्प्रकारका स्वाश्रित परिणमत नहीं हैं, इसलिए जिस प्रकार निश्चयधर्म विश्वका विषय है उस प्रकार व्यवहारधर्म निश्चयका विषय नहीं है, अपितु परकी महायतासे उत्पन्न होम यह जहां अगद्हूत व्यवहारनयका विषय है वहीं परकी सहायतारो उत्पन्न होनेपर भी दह पति जेता ही है, इसलिए वह सद्भूत व्यवहारनयका भी विषय है तथा ऊपर यह भी बतलाया ना है कि विश्व के प्रति साक्षात् सहायक कारण होता है, अतः निश्चय के प्रति उसकी वह नाश्वात् राहायक कारणता अनुपचतिरूप में सद्भूत होनेसे अनुपचारित भभूत व्यवहारनयका विषय है और मोदा के प्रति व्यवहारथमं परम्परया कारण होता है। इसलिए मोक्षके प्रति उसकी यह परम्परथा सहायकका पता उपनतिरूपमें सद्भूत होनेसे उपचरित राभूतव्यवहारनयका विषय है व अनुपचरितसद्भूतबहारभवभूत वह अनुपचरितद्भूतायकारणता तथा उपचरितमभूतव्यवहारकी विद्यधभूत वह पचतिराहा ककारणता दोनों ही सद्भूत हूँ। कल्पित अर्थात् आकाशकुसुमकी तरह सर्वथा १. श्रीरस्य णत्थि रागो ण वि दोस्रो व विज्जद मोहो । णो पच्चय ण कम्मं शोकम्मं चादि से गत्थि ॥५१॥ २. जीवट्टणाय गुणट्टणा व अस्थि जीवस्य । जंग एवं सब्बे पुग्गलवस्त परिणामा ॥५५॥ ३. मिच्छतं पुरा दुविहं जीवमजीव तहेब अष्णर्ण । अविद जोगो मोहो कोहादीया इमे भावा || ८७३ |

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