Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 1
Author(s): Vanshidhar Vyakaranacharya, Darbarilal Kothiya
Publisher: Lakshmibai Parmarthik Fund Bina MP

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Page 477
________________ २९० जयपुर (खानिया) तत्त्वचर्चा और उसकी समीक्षा यह साध्य-साधकभाव निश्ववनयका विषय है । इसके अतिरिक्त व्यवहार का मोक्ष के साथ जो साध्यसाधकभाव है वह अयथार्थ अर्थात् उपचरित सत् है, क्योंकि व्यवहारधर्म मोक्षका स्वाश्रित और साक्षात् कारण न होकर पराश्रित और परम्परया कारण होता है अर्थात् व्यवहारमोक्षमार्ग मोक्ष के स्वाश्रित और साक्षात् कारणभूत निश्चयमोक्ष मार्गका कारण होकर हो मोक्षका कारण है । अतएव व्यवहारथर्म और मोक्षमें विद्यमान साध्य साधकभाव उपचरित सत् होनेसे व्यवहारनयका विषय है । यद्यपि व्यवहारधर्मका निश्चयधर्मके साथ साक्षात् साध्य-साधकभाव है, परन्तु निश्चयधर्म पूर्वोक्त प्रकार स्वाश्रितधर्म है और व्यवहारघ पूर्वोक्त प्रकार पराश्रित है इसलिये निश्चयश्रर्म और व्यवहारधर्म में विद्यमान साध्य साधकभाष साक्षात् होनेपर भी व्यवहारका ही विषय हैं । यहाँ यह व्यातव्य है कि मोक्ष और निश्चयधर्ममें विद्यमान साध्य - सावकभाव इस प्रकारका है कि भव्य जीवको गोकी प्राप्तिनिश्वधर्मपूर्वक ही होती है। तथा निश्चयधर्मकी प्राप्ति होनेपर उसे मोक्षकी प्राप्ति नियमसे होती है। निश्त्तयधर्म और व्यवहारधर्म में विद्यमान साध्य साम्रकभाव इस प्रकारका है कि भाजीवको निश्चयधर्म की प्राप्ति तो व्यवहार धर्मपूर्वक ही होती है, परन्तु व्यवहारधर्मपर आरूढ़ भव्यजीवको निश्वयधर्मकी प्राप्ति होना ही चाहिए, ऐसा नियम नहीं है। इसका कारण यह है कि व्यवहारधर्मपर आरूढ़ भव्य जीवको निश्चयधर्मकी प्राप्ति तभी होती है जब उसमें क्षयोपशम, विशुद्धि, देशना और प्रायोग्य लब्धियों का विकास होनेपर का भी विकास हो जाता है। फलतः करणलब्धिका विकास निश्चयधर्म की प्राप्ति में अनिवार्य कारण सिद्ध होता है । यही कारण है कि अभव्य जीव में क्षयोपशम, विशुद्धि, देशना और प्रायोग्य लब्बियों का विकास होनेपर भी उसकी अभव्यता के कारण जन करणलब्धिका विकास सम्भव नहीं है तो उसे निश्चयधर्म की प्राप्ति नहीं होती है। इससे निर्णीत होता है कि व्यवहारधर्मपर आरूढ़ होनेपर निश्चयधर्मकी प्राप्ति होना ही चाहिये ऐसा नियम नहीं है । इतना अवश्य है कि जिस भव्यजीव में क्षयोपशम त्रिशुद्धि, देशना और प्रायोग्य लब्धियोंका विकास होनेपर यदि करणलब्धिका विकास हो जाता है तो उसे नियमसेविको प्राप्ति होती है। भव्य और भव्य दोनों प्रकारके जीवोंमें क्षयोपशम, विशुद्धि, देशना और प्रायो ब्किा तथा भव्य जीवमें इनके साथ करणलब्धिका भी विकास व्यवहारधर्म पूर्वक ही होता है, इस बातको सामान्य समीक्षा प्रकरण में बतलाया जा चुका है। इस तरह भव्य जीवको निश्चय की प्राप्ति में व्यवहारधर्म साधक सिद्ध हो जाता है। इस विवेचनसे उत्तरपक्षकी "व्यवहारधर्म निश्चयधर्मकी उत्पत्ति में साधक नहीं है, क्योंकि निश्चयधर्मकी उत्पत्ति परनिरपेक्ष होती हैं" यह मान्यता निरस्त हो जाती है । उत्तरपक्षने अपने उक्त अनुच्छेद के अन्त में जो यह लिखा है कि "व्यवहारधर्म को उसका साधक व्यवहारनयसे ही माना जा सकता है। यह परमार्थ कथन नहीं हूँ" सो उसका यह लेख पूर्वपक्ष को इस रूप में तो मान्य हो सकता है कि व्यवहारधर्म जीवका परिणाम होनेपर भी एक तो भावदती शक्ति के परिणामस्वरूप हृदय या मस्तिष्कके सहारेपर तथा क्रियावती शक्ति के परिणामस्वरूप मन, वचन और काय के सहारेपर उत्पन्न होता है अतः पराश्रित है। दूसरे, वह स्वयं निश्चयधर्मरूप न होकर निश्चयधर्मकी उत्पत्ति में निमित्त ( सहायक ) मात्र होता है, अतः उसे निश्वयधर्मकी उत्पत्ति में निश्चयकारण न माना जाकर व्यवहारकारण ही माना जा सकता है । परन्तु उत्तरपक्ष व्यवहारधर्मको एक तो पराश्रित होनेसे जीवका परिणाम नहीं मानना चाहता है। दूसरे निश्चनधर्मको उत्पति उसे निमित्त मानकर भी सर्वथा अकिंचित्कर

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