Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 1
Author(s): Vanshidhar Vyakaranacharya, Darbarilal Kothiya
Publisher: Lakshmibai Parmarthik Fund Bina MP
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शंका-समाधान ४ की समीक्षा
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असद्भुत नहीं है। उत्तरपक्ष तो उक्त दोनों प्रकारको सहायक कारणताओंको कल्पित अति आकाशकुसुमकी तरह सर्वथा अगदमत ही मानता है और इस आवारपर हो वह उन दोनों प्रकारको सहायककारणताओंको असद्भुत व्यवहारमयका विषय मानता है, जो आगम विरुद्ध है। अतः पूर्वपक्ष उसका विरोध करता है।
उपर्वत विवेचनस स्पष्ट होता है कि व्यवहारधर्म अपनी सापेक्ष सद्भूत व्यवहाररूपता और अराद्भूतश्यवहाररूपताके आधारपर क्रमशः सद्भूत और असद्भुत दोनों प्रकार के व्यवहारनयोका विषय है, इरालिए उत्तरपः: मानये मा भाग मानकर देश लगभृतव्यवहारमका विषय मान्य किया जाना अयुक्त है। इसी तरह उपक्त विवेचनसे यह भी स्पष्ट होता है कि व्यवहारधर्मका निश्चयंवर्मके साय स्वीकृत भाष्य-राधिकभाव मपनी अनुपचारितस तव्यवहाररूपताके भावारपर अनुपचरितसदभूतव्यवहारनयका विषय है व उरारे ज्यबहारसमका मोक्षके साथ स्वीकृत साध्यापकभाव अपनी उपचरितसद्भुतम्यवहाररूपताको आधारपर उपचन्तिराद्भूतन्यवहारनपका विषय है। इसलिए उत्तरपक्ष द्वारा इन दोनों प्रकार के राश्य-साधकभावोंको असद्भूतव्यवहाररूप मानकर असद्भूत व्यवहारनयका विषय मान्य किया जाना भी अयुक्त है । अतः उत्तरपक्षका प्रकत अनुच्छेदमें किया गया यह कायन वि. "हमारी धाट हो नमदृष्टिसे उसका आशय स्पष्ट करनेकी है"-असंगत सिद्ध हो जाता है और इस कथनके अमगत सिद्ध हो जानेगे, उसने वहींपर आगे जो यह कथन किया है कि "अपरपक्ष उस स्पष्टीकरणको उपेक्षाकी दृष्टि से देखकर उसकी अवहेलना करता है" यह भी असंगत सिद्ध हो जाता है। तथा इस कथनके भी असंगत सिद्ध हो जानेसे उसने वहींपर आगे जो यह कथन किया है कि क्या इसे ही परमप्रमाणभून, मृलसंधक प्रतिटापक यो कुन्दकुन्दाचार्य तथा अन्य आध्यात्मिक आचार्योंके आर्षवाक्योंको परमथनाल कौर तत्त्वत्रत्ता बनकर । स्वीकार करमा कहा जाये :" यह कथन भी असंगत सिद्ध हो जाता है।
इस विषयमें मेरा यह भी कहना है कि पूर्वपक्षने त० च० पृ० १३४ पर "आपके उस पत्रकार हमने प्रवचनसार, पंचास्तिकाय, परमात्मप्रकाश और द्रव्यसंग्रह ग्रन्थोंके अनेक प्रमाण देकर सिद्ध किया था कि कावहारधर्म (व्यवहाररत्नत्रय) साधक है और निश्चयधर्म (निश्चयरत्नत्रय) माध्य है" इस कथनके आगे जो यह कथन किया था कि “परमप्रमाणभूत, मूलसंघवे, प्रतिष्ठापक थी कुन्दकुन्दाचार्य तथा अन्य आभ्यास्मिक प्रमाणिक आचार्योक आप प्रमाण देखकर जिनवाणीका श्रद्धालु और तत्ववेत्ता नतमस्तक होकर उन्हें स्वीकार कर लेता है। ऐसी हो आशा आपसे भी थी। इसको लक्ष्यमें लेकर उत्तरपक्ष ने पुर्वपक्षवा उपहारा , करनेकी दृष्टिसे ही उक्त कथन किया है, सो उसकी इस उपहास करनेको दृष्टिको उपयुक्त आगमव्यवस्था को देखते हुये अशोभनीध ही कहा का जा सकता है ।
उत्तरपक्षन्ने प्रकृत अनुच्छेदमें ही आगे जो यह कथन किया है वि. 'पूर जिनागमको दृष्टि में रखकर जरावे हादको समझकर कल्याणवे. मार्ग में लगा जाये. यह हमारी दम्टि है और इसी दक्टिसे प्रत्येक उत्तरमें हम यथार्थका निर्णय बारमा प्रयत्न करते आ रहे हैं। अपरपक्ष भी इसी मार्गको स्वीकार कर ले, ऐसा मानस है। स्व-परवेः कल्याणका यदि कोई मार्ग है तो एक मात्र मही है। इसमें उसने जो जिनागमके हार्दको समझकर कल्याणके मार्ग में लगनेकी अपनी दृष्टि बतलाची है उसके सम्बन्ध विशंप कुछ न कहकर केवल इतना ही कहना पप्ति है कि कल्याणके मार्गपर वही व्यक्ति चल सकता है जिसके पुण्यकमोथे उदयके साथ कषायों की अत्यन्त मन्दता हो। यदि उत्तरपक्षकी यही स्थिति है तो वह स्वागत योग्य है, क्योंकि जो कल्याणके मार्गपर चलेगा उसका कल्याण होना निश्चित है और जो कल्याणके मार्गपर नहीं चलेगा