Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 1
Author(s): Vanshidhar Vyakaranacharya, Darbarilal Kothiya
Publisher: Lakshmibai Parmarthik Fund Bina MP

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Page 472
________________ शंका-समाधान ४ की समीक्षा २८५ गुणस्थान बाह्य प्रवृत्तिरूप होता है । परन्तु उस गुणस्थानका काल भी अन्तर्मुहूर्त है, अतः यदि वह अपने पदके अनुकूल व्यवहारधर्म के पालन में प्रमादी हो गया तो अपना काल समाप्त करके वह नीचेके गुणस्थानोंमें भी गिर सकता है। फलतः उसे आगममें यह उपदेश दिया गया है कि वह सप्तम गुणस्थानमें पहुँचने का ही पुरुषार्थ करे, क्योंकि वह सप्तम गुणस्थान में पहुँचनेका पुरुषार्थ करनेवर ही आत्मोन्मुख होकर सप्तम गुणस्थान में पहुँच सकता है । इसलिये उसे एक ओर तो व्यवहारधर्म में सजग रहना है और दूसरी ओर उसे इस तरहका पुरुषार्थ भी करना है कि वह आत्मोन्मुख होकर सप्तम गुणस्थान में पहुँच सके। इससे यह निर्णीत होता हैं कि पष्ठ गुणस्थानवर्ती जीव जब स्वभावकी ओर झुक जायेगा तब तो उसे सप्तम गुणस्थान प्राप्त होगा और जबतक उसकी स्थिति स्वभावकी ओर झुकनेकी नहीं होगी तबतक वह षष्ठ गुणस्थान में बना रहेगा । इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि गुजरात साधुका कर्तव्य यह है कि वह अपने व्यवहारधर्मको कर्त्तव्यनिष्ठा के साथ पालन करते हुए सतत पुरुषार्थ आत्मस्वभाव की ओर झुकने का ही करता रहे। जैसे चीटी किसी ऊपरी स्थानपर पहुंचने के लिए पुरुषार्थ तो चढ़ने का ही करती हैं, परन्तु यदि वह न सम्हल सकने के कारण गिरती भी है तो भी उसका पुरुषार्थ चढ़नेका हो होता है । ठीक यही दशा षष्ठ गुणस्थानवर्ती जीवको होती है। और यह तबतक होती रहती है जबतक वह सप्तम गुणस्थान में पूर्णरूप से स्थिर नहीं होता है, क्योंकि सप्तम गुणस्थान में स्थिर हो जानेपर हो वह जीव अपना समय समाप्त करके अष्टम गुणस्थानमें पहुँच सकता है इस तरह षष्ठ गुणस्थानवर्ती जीव आत्मोन्मुख होनेके लिए जो पुरुषार्थ करता है वह पुरुषार्थं तभी हो सकता है जब वह जीव व्यवहारवमंको गौण कर देता है अन्यथा नहीं। वहाँ गौणशब्दसे यही अभिप्राय ग्रहण करना उचित है कि वह जीव व्यवहारधर्म का पालन तो करे, परन्तु उसे पुरुषार्थ प्रधानतया आत्मोन्मुख होने का ही करना चाहिए । यही कारण है कि नयचक्रको उक्त गाथामें स्वभावकी आराधना काल में अर्थात् स्वभावोन्मुख होने के लिए पुरुषार्थ करते समय षष्ठ गुणस्थानवर्ती जीवको व्यवहारधर्मको गौण करने की बात कही गई है । आगे त० च० पू० १३२ पर उत्तरपक्ष ने यह कथन किया है कि "इस सम्बन्धी प्रतिशंकाम प्रवचनसार, पंचास्तिकाय, परमात्मप्रकाश और द्रव्यसंग्रह के विविध प्रमाण उपस्थित कर जो यह सिद्ध किया गया है कि व्यवहारधर्म निश्चयधर्मका साधक है सो वह कथन असद्भूतव्यवहारनयकी अपेक्षा से ही किया गया है ।" इसकी समीक्षा में मेरा यह कहना है कि उत्तरपक्ष व्यवहारधर्मको जो असद्द्भूत्तव्यवहारनय का विषय मानता है इसमें हेतु यह है कि वह व्यवहारधर्मको जीत्र के सहयोग से होनेवाली शरीरको अशुभ क्रियासे निवृत्ति के साथ शुभ प्रवृत्तिरूप दारीरकी क्रिया ही मानता है । यतः पूर्वपक्ष हारधर्मको मन, वचन और कायके सहयोग से होनेवाली जीवकी अशुभ क्रियासे निवृत्तिके साथ होनेवाली जीवकी शुभ क्रिया मानता है, अत: वह (पूर्व पक्ष ) उस निवृत्तिके साथ प्रवृत्तिरूप व्यवहारधर्मको सद्भूतव्यवहारनयका विषय मानता है । इनमें पूर्वपक्षको मान्यता सम्यक् है, उत्तरपक्षकी मान्यता सम्यक नहीं हैं। इस बातको द्वितीय प्रश्नोतरकी समीक्षा में स्पष्ट किया जा चुका है। इसके अतिरिक्त मेरा यह भी कहना है कि व्यवहारधर्म चाहे अद्भूत व्यवहारनयका विषय हो अथवा सद्भूत व्यवहारनयका विषय हो परन्तु वह निश्वयव मंकी उत्पत्ति में साधक होता ही है। इसलिये उसे मोक्ष की प्राप्ति में सर्वथा अकिचित्कर कदापि नहीं कहा जा सकता है अर्थात् मोक्षका साक्षात् कारण न होनेसे भले ही व्यवहारधर्मको अकिंचित्कर कहा जाये, परन्तु

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