Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 1
Author(s): Vanshidhar Vyakaranacharya, Darbarilal Kothiya
Publisher: Lakshmibai Parmarthik Fund Bina MP
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शंका-समाधान ४ की समीक्षा
२८३ ३. प्रश्नोत्तर ४ के द्वितीय दौरको समीक्षा द्वितीय दौर में पूर्वपक्षकी स्थिति
पूर्वपक्षने अपने वितीय दौरमें उत्तरपक्ष के प्रथम दौरकी आलोचना करते हुए आगम प्रमाणोंके आधारपर अपनी इस मान्यताको पुष्ट किया है कि "व्यवहारधर्म निश्चयधर्मका साधक है ।" द्वितीय दौरमें उत्तरपक्षकी स्थिति और उसकी समीक्षा
उत्तरपक्षने अपने द्वितीय दौरमें उत्तरका समर्थन करने के लिए सर्वप्रथम सा च १३२ पर नयचनको निम्न गाथाको उपस्थित किया है
ववहारादो बंधो मोक्खो जम्हा सहावसंजुत्तो ।
तम्हा कुरु तं गउणं सहावमाराहणाकाले १७७।। इस गाथाकी भारतीय ज्ञानपीठसे प्रकाशित नयचक्र ३४२ संख्या अंकित की गई है। इसका अर्थ उत्तरपक्षने इस प्रकार किया है
"यतः व्यवहारसे बन्ध होता है और स्वभावका आश्रय लेनेसे मोक्ष होता है इसलिये स्वभावको सारांधनाके कालमें अर्थात् मोक्षमार्ग में व्यवहारको गौण करो ।।७७।।
इस अर्थमें उतरपक्षने "स्वभावकी आराधनाके कालमें" इस अंशका जो "मोक्षमार्गमें" यह अभिप्राय ग्रहण किया। जसका गाथासे मेल बराता है या नहीं, इस बातपर उसे ध्यान देना चाहिए था और यदि मेल बैठता है तो उसका स्पष्टीकरण करना चाहिए था। मेरा कहना है कि उसका गाथाके साथ मेल नहीं बैठता है। आगे इसी बातको स्पष्ट किया जाता है
सम्पूर्ण गाथाका क्या अभिप्राय होना चाहिए, इस विषयमें मेरा यह कहना है कि आगममें अशुभसे निवृत्तिपूर्वक शुभमें होने वाली जोवकी प्रवृत्तिको व्यवहारधर्म कहा है । तथा पूर्वोक्त प्रकार आगममें यह भी कहा है कि इस व्यवहारश्चर्मक "अदाभसे निवृत्ति" रूप अंशसे कर्मोंके संबर और निर्षरण होते हुए भी शुभमें होनेवाली प्रवृत्तिरूप अंशसे कर्मोके आस्रव और बन्ध ही हुआ करते हैं। इस तरह इस बातको ध्यानमें रखकर ही नयचक्रके कर्तान गाथामें "चवहारादो बंधो" यह पाठ किया है और यतः स्वभावका आश्रय लेनेपर ही मोक्षको प्राप्ति सम्भव है, इसके बिना नहीं, अत: उन्होंने गाथामें "मोक्लो जम्हा सहावसंजुत्तो" यह पाठ किया है। इस प्रकार व्यवहारसे बन्ध और स्वभावके आथयसे मोश्च बतलाकर अन्यकारने माथाके उत्तराद्ध में जीवोंको यह उपदेश दिया है कि स्वभावकी आराधनाके कालमें व्यवहारको गौण करो।
इसका तात्पर्य यह है कि यद्यपि आगमप्रमाणों के आधारपर व्यवहार और निश्चय दोनों मोक्षमार्गकी प्राप्तिके लिए उपयोगी सिद्ध होते है. परन्त आगमप्रमाणोंके आधारपर पह भी निर्णीत होता है कि सर्वधा संवर और निर्जरण होनेपर ही जोवको मोक्षकी प्राप्ति सम्भव है। यतः ऊपर कहे अनुसार जीब जबतक व्यवहारवर्ममें प्रवृत्त रहता है तबतक एक अपेक्षासे काँका संवर और निर्जरण होते हुए भी एक अपेक्षासे कोका आस्रव और बन्ध भी होता है, अतः नयचक्रके कत्ताको गाथामें यह लिखना पड़ा कि स्वभावकी आराधना कालम व्यवहारको गौण करो। दूसरी बात यह है कि गाथामें पठित "गौण" पदको स्पयहार धर्मकी मोक्षकारणताका निषेधक नहीं माना जा सकता है। उससे तो मोक्षप्राप्तिके लिए व्यवहार