Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 1
Author(s): Vanshidhar Vyakaranacharya, Darbarilal Kothiya
Publisher: Lakshmibai Parmarthik Fund Bina MP

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Page 468
________________ शंका-समाधान ४ की समीक्षा २८१ कहते हैं । इसी तरह केवलदर्शनलविका पदार्थावलम्बनपूर्वक होनेवाला परिणमन केवलदर्शनोपयोग क लाता है। तथा चक्षुर्दर्शनलब्धि के पदार्थविलम्बनपूर्वक होनेवाले परिणमनको चक्षुर्दर्शनोपयोग, अचक्षुर्दर्शनलब्धि के पदार्थावलम्बनपूर्वक होनेवाले परिणमनको अक्षुर्दर्शनोपयोग और अवधिदर्शनलब्धिके पदार्थालम्बनपूर्वक होनेवाले परिणमनको अवधिदर्शनोपयोग कहते है । केवलज्ञानोपयोग और केवलदर्शनोपयोग दोनों पदार्थावलम्बनपूर्वक होकर भी यतः इन्द्रियरहित मौर असहाय होते हैं अतः इन्हें क्रमशः स्वभावभूत ज्ञानोपयोग और स्वभावभूत दर्शनोपयोग कहते हैं व मतिज्ञानोपयोग, श्रुतज्ञानोपयोग, अवधिज्ञानोपयोग और मन:पर्ययज्ञानोपयोग इन्द्रियसहित और ससहाय होने के कारण विभावभूत ज्ञानोपयोग कहलाते हैं । तथा बनुदर्शनोपयोग, अचक्षुर्दर्शनोपयोग और अवजिदर्शनोपयोग भी इन्द्रिय सहित और ससहाय होने के कारण विभावभूत दर्शनोपयोग कहलाते है । मतिज्ञानोपयोग और श्रुतज्ञानोपयोग ये दोनों ज्ञानोपयोग तथा चक्षुर्दर्शनोपयोग और अचक्षुर्दर्शनीयोग दोनों और सहोते हैं यह बात तो स्पष्ट है, परन्तु अवधिज्ञानोपयोग और मन:पर्ययज्ञानोपयोग ये दोनों ज्ञानोपयोग तथा अवधिदर्शनोपयोग भी इन्द्रियसहित और ससहाय होते हैं । इसका कारण यह है कि एक तो इनके विषय इन्द्रिय और मनके विषयभूत रूपी पदार्थ होते हैं । दूसरे, वे पदार्थ द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावकी मर्यादापूर्वक इनके विषय होते हैं । यहाँ इतना विशेष ज्ञातव्य है कि प्रतिज्ञानोपयोग, श्रुतज्ञानोपयोग और अवधिज्ञानोपयोग मिध्यादृष्टि जीव में मोहनीयक कि भेद मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी इन दोनों प्रकृतियोंके उदयसे प्रभावित रहते हैं, सासादन सम्यक दृष्टि जीव में अनन्तानुबंधी कपायके उदयसे प्रभावित रहते हैं और सम्यग्मिध्यादृष्टि जीवमें सम्यग्मिथ्यात्वकर्मके उदयसे प्रभावित रहते हैं, अतः इन्हें अप्रशस्त ज्ञानोपयोग कहते है । तथा चतुर्थ गुणस्थानसे लेकर द्वादश गुणस्थान पर्यन्त ये तीनों ज्ञानोपयोग मोहनीयकर्मके यथायोग्य उपशम क्षय या क्षयोपशमसे प्रभावित रहते हैं, अतः उन्हें प्रशस्त ज्ञानोपयोग कहा जाता है। मन:पर्ययज्ञानोपयोग पष्ठ गुणस्थानसे लेकर द्वादश गुणस्थानन्त ही जीव में विद्यमान रहता है, अतः वह सतत मोहनीयकर्मके यथायोग्य उपशम, क्षय या क्षयोपशमसे प्रभावित रहने के कारण प्रशस्त होता है व केवलज्ञानोपयोग समस्त ज्ञानावरणकर्मका क्षय होनेपर त्रयोदश गुणस्थान के प्रथम रामयमें प्रगट होता है, अतः वह प्रशस्त ही होता है । यतः सभी दर्शनोपयोग निर्विकल्पक होते हैं, इसलिये वे मोहनीयकर्मके उदय, उपशम, क्षय या क्षयोपशम से कदापि प्रभावित नहीं होते । फलतः सभी दर्शनोपयोगों में प्रशस्तपने और अप्रशस्तपका भेद नहीं है । 1 इस विवेचनसे निर्णीत होता है कि आचार्य कुन्दकुन्दने नियमसारकी उक्त गाथाओं में जो केवलज्ञानोपयोग और केवलदर्शनोपयोगको इन्द्रियरहित और असहाय होने के कारण स्वभावभूत व शेष सभी ज्ञानोपयोगों और सभी दर्शनोपयोगोंको इन्द्रियसहित और ससहाय होनेके कारण विभावरूप बतलाया है उसमें उनकी दृष्टि केवलज्ञानोपयोग और केवलदर्शनोपयोगको स्वभावरूपता के आधारपर परनिरपेक्ष व शेष सभी ज्ञानोपयोगों और सभी दर्शनोपयोगको विभावरूपता के आधारपर स्वपरसापेक्ष बतलाने की नहीं है, क्योंकि स्वभावरूप और विभावरूप सभी ज्ञानोपयोग और सभी दर्शनोपयोग पदार्थावलम्बनता के आधारपर परसापेक्ष ही सिद्ध होते हैं । इस तरह उत्तरपक्षका नियमसार गाथा १३ और १४ के आधारपर केवलदर्शनोपयोगको इन्द्रियरहित और असहाय होनेसे स्वभावरूप और दोष सभी दर्शनोपयोगों को इन्द्रियसहित और ससहाय होनेसे स०-३६

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