Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 1
Author(s): Vanshidhar Vyakaranacharya, Darbarilal Kothiya
Publisher: Lakshmibai Parmarthik Fund Bina MP
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शंका-समाधान ४ की समीक्षा
पर यह निष्कर्ष निकाला है कि सर्वत्र निश्चयवर्मकी उत्पत्ति परनिरपेक्ष होती है। परन्तु नियमसारकी गाथा १३ और १४ से यह बात सिद्ध नहीं होती है । आमे इसी बातको स्पष्ट किया जाता है ।
उत्तरपक्ष ने निश्चयधर्मको उत्पत्ति परनिरपेक्ष होती है इस मान्यताकी पुष्टिके लिए नियमसारको जिन दो गायोंको प्रस्तुत किया है वे गाथायें नियमसारके उपयोगप्रकरणकी है। उस प्रकरणकी अन्य गाथाओंके साथ इन गाथाओंपर दृष्टि डालनेसे स्पष्ट होता है कि उनके आधारपर निश्चयधर्मको उत्पत्ति परनिरपेक्ष सिद्ध नहीं होती है। इस बातका स्पष्टीकरण करने के लिए उपयोगप्रकरणकी सभी माथाओंको यहाँ उद्धृत किया जाता है।
जीवो उवओगमओ उवओगो णाणदसणो होइ । णाणुबओगो दुविहो सहावणाणं विभावणाणं त्ति ॥१०॥ केवलमिदियरहियं असहाय तं सहावणाणं ति । सणाणिदरवियप्पे विहावणाणं हवे दुविहं ॥११।। सण्णाणं चउभेदं मदिसुदओही तहेव मणपज । अण्णाणं तिविथप्पं मदियाईभेददो चेव ॥१२॥ तह देसण उनओगो ससहावेदर-वियप्पदो दुविहो । केवलमिदियरहियं असहायं तं सहावमिदि भणिदं ॥१३॥ चक्खु अचक्खू ओहो तिणि वि भणिदं विभावदिच्छित्ति। पउजाओ दुषियप्पो सपरावेक्लो य णिरवेक्खो ॥१४॥ णरणारयसिरियसुरा पज्जाया ते विभावमिदि भणिदा ।
कम्मोपाधिविवज्जिय पज्जाया ते सहावमिदि मणिदा ॥१५॥ प्रकरणको देखते हुए इन गाथाओं से गाथा १४ के पूर्वाद्धका सम्बन्ध गाथा १३ के साथ है और उसके उत्तरार्द्धका सम्बन्ध गाथा १५ के साथ है। इस घातकी पुष्टि गाथा १४ के पूर्वार्तकी आचार्य पनप्रभमलधारिदेवकृत टोकाके आगे और उत्तराद्धकी टीकाके पूर्व में निर्दिष्ट "अनोपयोगव्याख्यानन्तरं पर्यायस्वरूपमुच्यते" वचनके आधारपर होती है। इस वचनका अर्थ है कि यहॉपर उपयोग के व्याख्यान के अनन्तर पर्यायके स्वरूपका कथन किया जाता है।
इस तरह माथा १०, ११, १२, १३ का और १४ के पूर्वाद्धका सम्मिलित अर्थ इस प्रकार है कि जोक उपयोगात्मक है। उपयोग जाम और दर्शन दो भेदरूप है। इनमें ज्ञानोपयोग स्वभाव और विभावके भेदसे दो प्रकारका है। इन्द्रियरहित और असहाय केवल ज्ञानोपयोग तो स्वभावज्ञानोपयोग है तथा प्रशस्त और अप्रशस्तके भेदसे विभाव जानोपयोग दो प्रकार है। प्रशस्त मानोपयोग मति, श्रुत, अवधि और मनापर्ययके भेदसे चार प्रकारका है व अप्रशक्त विभावज्ञानोपयोग मति, श्रुत और अवधिके भेदसे तीन प्रकारका है। उसी प्रकार दर्शनोपयोग भी स्वभाव और विभावके भेदस दो प्रकारका है । इन्द्रियरहित और असहाय केवलदर्शनोपयोग तो स्वभावदर्शनोपयोग है तथा विभावदर्शनोपयोग चक्षुदर्शन, अचशुर्दर्शन और अवधिदर्शनके भेदसे तीन प्रकारका है"।
इसी प्रकार गाथा १४ के उत्तरार्द्धका और गाथा १५ का सम्मिलित अर्थ इस प्रकार है कि पर्याय