Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 1
Author(s): Vanshidhar Vyakaranacharya, Darbarilal Kothiya
Publisher: Lakshmibai Parmarthik Fund Bina MP

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Page 464
________________ शंका-समाधान ४ की समीक्षा ૨૭ गुणस्थानके प्रथम समय में निश्चयधर्मका विकास उस जीवकी भावचती शक्तिके परिणभन स्वरूप क्षायिक यथाख्यात निश्चयसम्यक् चारित्र के रूपमें होता है तथा यह जीवके आगे के सभी गुणस्थानों में विद्यमान रहता है । (४) पूर्व में स्पष्ट किया जा चुका है कि एक व्यवहाधर्म राम्यग्दर्शन के रूप में जीवकी भाववती शक्तिका हृदय के सहारेपर होने वाला परिणमन है और दूसरा व्यवहारधर्म सम्यग्ज्ञानके रूपमें जीवकी भाववती शक्तिका मस्तिष्क के सहारेपर होनेवाला परिणमन है । एवं तीसरा व्यवहारश्रर्म नैतिक आचार तथा देशविरति व सर्वविरतिरूप सम्यक् वारियरूपमें वचन और हरेपर होनेवाला जीवकी क्रियावती शक्तिका परिणमन है । इस सभी प्रकार के व्यवहारधर्मका विकास प्रथम गुणस्थान में सभव है और अभव्य व भव्य दोनों प्रकार के जीवों में हो सकता है। इतना अवश्य हूँ कि उक्त सम्यग्दर्शन व सम्यग्ज्ञानरूप तथा नैतिक आचाररूप व्यवहारधर्मका विकास प्रथम गुणस्थान में नियमसे होता है क्योंकि इस प्रकारके व्यवहारका विकास किये बिना अमत्र्य जीव में क्षयोपशम, विशुद्धि, देशना और प्रायोग्य इन चार लब्धियोंका व भव्य जीवमें इन चारों लब्जियों के साथ करणलविका विकास नहीं हो सकता है । प्रथम गुणस्थान में देशविरति ओर सर्वविरति सम्यक्चारित्र रूप वहारधर्मके विकसित होने का कोई नियम नहीं है परन्तु देशविरति सम्यक्चारित्ररूप व्यवहारधर्मका विकास चतुर्थ गुणस्थान में होकर पंचम गुणस्थानमें भी रहता है । एवं सर्वविरति सम्यक् चारित्ररूप व्यवहारधर्मका पंचम गुणस्थानमें विकास होकर आगे षष्ठसे दशम गुणस्थान तक उसका सद्भाव नियमसे रहता है। यहाँ इतना अवश्य ध्यातव्य है कि सप्तम गुणस्थान से लेकर दशम गुणस्थान तक उस व्यवहारधर्मका सद्भाव अन्तरंगरूपमें हो रहता है। तथा द्वितीय और तृतीय गुणस्थानों में यथासम्भव रूपमें रहनेवाला व्यवहारधर्म भी अबुद्धिपूर्वक ही रहता है। एकादश गुणस्थान से लेकर आगे के सभी गुणस्थानोंमें व्यवहाधर्मका सर्वथा अभाव रहता है । यहाँ केवल निश्चयधर्मका ही सद्भाव रहता है । क्रियावती शक्तिके परिणमन caru व्यवहार अविरतिका सद्भाव प्रथम गुणस्थानसे चतुर्थ गुणस्थान तक ही सम्भव है । जीवको मोक्षकी प्राप्ति निश्चयधर्म पूर्वक होती है प्रकृत में मोक्ष शब्दका अर्थ जीव और शरीर के विद्यमान संयोगका सर्वथा विच्छेद हो जाना है । जीव और शरीर के विद्यमान संयोगका सर्वथा विच्छेद चतुर्थदश गुणस्थानमें तब होता है जब उस जीवके साथ बद्ध चार अघाती कमका सर्वथा क्षय हो जाता है । जीवको चतुर्थदश गुणस्थानकी प्राप्ति तब होती है जब त्रयोदश गुणस्थान में कमसिन में कारणभूत जीवके योगका सर्वथा निरोध हो जाता है। जीवको प्रयोदश गुणस्थानकी प्राप्ति तब होती है जब जीवके साथ बद्ध ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय इन तीन घाती कमका द्वादश गुणस्थान में सर्वया क्षय जाता है। जीवको द्वादश गुणस्थानकी प्राप्ति तब होती है जब जीवके साथ मोहनीयकर्मप्रकृतियोंका पूर्व में यथासमय क्षय होते हुए दशम गुणस्थानके अन्त समयमे शेष सूक्ष्म लोभ प्रकृतिका भी क्षय हो जाता है। द्वादश गुणस्थानका अर्थ हो दशम गुणस्थानके अन्त समयमे मोहनीय कर्मका सर्वथा क्षय हो जानेपर जीवकी भाववती शक्ति के परिणमनस्वरूप शुद्ध स्वभावभूत निश्चयधर्मका पूर्णतः हो जाना है। इस विवेचनसे निर्णीत होता है कि जीवको मोक्षको प्राप्ति निश्चयधर्म पूर्वक होती है ।

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