Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 1
Author(s): Vanshidhar Vyakaranacharya, Darbarilal Kothiya
Publisher: Lakshmibai Parmarthik Fund Bina MP

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Page 462
________________ शंका-समाधान ४ की समीक्षा २७५ व्यवस्थित क्रमसे विवेचन करना सम्भव नहीं ले । केवल मनुष्य हो ऐसा दीव है जिसमें अगृहीत मिथ्यात्वके साथ गृहीत मिथ्यात्व भी पाया जाता है। फलतः मनुष्योंमें व्यवहारधर्मका व्यवस्थित क्रमसे विवेचन करना सम्भव हो जाता है । अतः यहाँ मनुष्योंकी अपेक्षा क्यवहारधर्मका विवेचन किया जाता है । चरणानुयोगको व्यवस्थाके अनुसार पापभूत अघाप्तिकर्मोके उदयमें अभव्य और भव्य मिथ्यादृष्टि मनुष्योंकी भावदती शक्तिके हृदयके सहारेपर अतत्वश्रद्धानके रूपमें और मस्तिष्कके सहारेपर अतत्त्वज्ञानके रूपमें मिथ्या परिणमन होते रहते हैं तथा जब उनमें पुण्यभूत अघातिकर्मोका उक्ष्य होता है तब अतत्त्वश्रद्धान और समजाजरूपमरणमनोनी नादि होनेगार जमली उस भावती शक्तिके हृदयके सहारेपर तस्वश्रद्धानके रूपमें और मस्तिष्कके सहारेपर तत्त्वज्ञान के रूपमें सम्पपरिणमन होने लगते है । भाववती शक्तिके दोनो प्रकारके सम्यक परिणमनोंमैसे तत्त्वश्रद्धानरूप परिणमन सम्धग्दर्शनके रूपमें व्यवहारचर्म कहलाता है और तत्त्वज्ञानरूप परिणमन सम्यग्ज्ञानके रूपमें व्यवहारधर्म कहलाता है। चरणानुयोगको व्यवस्थाके अनुसार भावनती शक्तिके परिगमन स्वरूप उक्त अतत्त्वश्रवान और अतरवज्ञानसे प्रभावित अभत्र्य और भव्य मिथ्यादष्टि मनुष्य अपनी क्रियावती शक्तिके परिणमनस्वरूप मानसिक, दाचनिक और कायिक संकल्पी पापभूत अशुभ प्रवृत्तियों किया करते हैं और कदाचिस् साथमें लौकिक स्वार्थवश 'पुण्यभूत शुभ प्रवृत्तियाँ भी करते हैं। तथा जब वे भाववती शक्तिके परिणमम स्वरूप उक्त तत्त्वज्ञान और तत्त्वज्ञानसे प्रभावित होते हैं तब वे अपनो क्रियावती शक्तिके परिणमनस्वरूप उक्त संकल्पीपापभूत अशुभ प्रवृत्तियोंको सर्वथा त्यागकर मानसिक वाचनिक और कायिक आरंभी पापभूत अशुभ प्रवृत्तियों के साथ कर्तव्यवश पुण्यभूत शुभ प्रवृत्तियां भी करने लगते हैं। इतना ही नहीं, भावयती शक्तिके परिणमनस्वरूप उक्त तत्वश्रद्धान और तत्त्वज्ञानके आधारपर वे अभव्य और भव्य मिथ्यादष्टि मन कदाचित् क्रियावती शक्तिके परिणमनस्वरूप उक्त संकल्पी पापभूत अशुभ प्रवृत्तियांक सर्वथा त्यागपूर्वक उक्त आरंभी पापभूत अशुभ प्रत्तियोंका भी एकदेश अथवा सर्वदेश त्याग करते हुए अनिवार्य आरम्भी पापभूत अशुभ प्रवृतित्रों के साथ पुण्यभूत शुभ प्रवृत्तियों करते हैं। इस प्रकार अमव्य और भव्य मिथ्यादृष्टि मनुष्य भाववती शक्तिके परिणमनस्वरूप तत्त्वज्ञान और तत्त्वज्ञानसे प्रभावित होकर अपनी क्रियावती शक्तिके परिणमन स्वरूप संकल्पी पापभूत अशुभ प्रवृत्तियोंको सर्वश्रा स्मागकर जो अपनी क्रियावती शक्तिके परिणमनस्वरूप मारम्भी पापभूत अशुभ प्रवृत्तियों के साथ पुण्यभूत शुभ प्रवृत्तियों करते हैं उन प्रवृत्तियोंको नैतिक आघारके रूपमें व्यवहारधर्म कहा जाता है। तथा वे ही मनुष्य जन्म संकल्पी पापभूत अशुभ प्रवृत्तियों त्यागपूर्वक आरम्भी पापभूत अशुभ प्रवृत्ति यांका एकदेश अपचा सर्वदेश त्याग कर हुए पुण्यभूत शुभ प्रवृत्तियां करते हैं तब उन्हें क्रमशः देशविरति अथवा सर्वविरतिरूप सम्यक्चारित्रके रूपमें व्यवहारधर्म कहा जाता है। प्रसंगवश मैं यहाँ यह भी स्पष्ट कर देना चाहता हूँ कि अभव्य और भव्य मिथ्यादृष्टि मनुष्योंको भाववती शक्तिके परिणमन स्वरूप हदयके सहारेपर होनेवाला अतस्वधद्वान व्यवहारमिथ्यादर्शन कहलाता है । और उनकी उसी भाषवती शक्तिके परिणमनस्वरूप मस्तिष्कके सहारेपर होनेवाला अतत्त्वज्ञान व्यवहारमिथ्याज्ञान कहलाता है। तथा मिथ्यादर्शन और मिध्याज्ञान इन दोनोंसे प्रभावित उन मनुष्योंकी क्रियावती शक्तिके परिणाम स्वरूप मानसिक, वाचनिक और कायिक संकल्पी पापभूत जो अशुभ प्रवृत्ति हुआ करती है वह व्यवहारमिथ्याचारित्र कहलाता है। यहां यह ध्यातव्य है कि उक्त प्रकारके व्यवहारमिथ्यावर्शन और

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