Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 1
Author(s): Vanshidhar Vyakaranacharya, Darbarilal Kothiya
Publisher: Lakshmibai Parmarthik Fund Bina MP
View full book text
________________
२७८
rtant forecast प्राप्ति व्यवहारधर्मपूर्वक होती है।
जोयकी भाववती शक्तिका निश्चयधर्म के रूप में प्रारम्भिक विकास चतुर्थगुणस्थानके प्रथम समय में होता है और उसका वह विकास पंचमादि गुणस्थानों में उत्तरोत्तर वृद्धिको प्राप्त होकर एकादश गुणस्थान के प्रथम समय में औपशमिक यथाख्यात निश्चयसम्यक् चारित्र के रूपमें अथवा द्वादश गुणस्थानके प्रथम समय में क्षायिक यथाख्यात सम्यक् चारित्रके रूपमें पूर्णताको प्राप्त होता है । निश्चयमंका वह विकास मोहनीय कर्मको उनउन प्रकृतियों के यथास्थान यथासंभव रूप में होनेवाले उपशम, क्षय या क्षयोपशम पूर्वक होता है । तथा मोहनीयकर्मकी प्रकृतियों का यथायोग्य वह उपशम, क्षय या क्षयोपशम भव्य जीवमें आत्मोन्मुखतारूप करणलब्धिका विकास होनेपर होता हैं व उसमें उस करणलब्धिका विकास क्षयोपशम, बिशुद्धि, देशना और प्रायोग्य प्रियों के विकासपूर्वक होता है। एवं जीव में इन लब्धियों का विकारा व्यवहारधर्म पूर्वक होता है। यह व्यव हारधर्म अशुभ प्रवृत्तिसे निवृत्तिपूर्वक शुभमें प्रवृत्तिरूप होता है। जीवको इराकी प्राप्ति तब होती हैं जब उस जीव भाववती शक्ति हृदयके सहारेपर होनेवाले तत्त्वश्रद्धानरूप व्यवहारसम्यक्दर्शनकी और मस्तिष्कके सहारेपर होनेवाले तत्त्वज्ञानरूप व्यवहारसम्यग्ज्ञानकी उपलब्धि हो जाती है। इसके विकास की प्रक्रियाको पूर्व में व्यवहारमंत्री व्याख्यामें बतलाया जा चुका है। इस विवेचनये यह निर्णीत होता है कि व्यवहारधर्म निश्चयधर्मकी उत्पत्ति में कारण होता है। यह विषय प्रश्नोत्तर २ और ३ की समीक्षासे भी जाना जा सकता है।
जयपुर (खानिया) तत्त्वचर्चा और उसकी समीक्षा
यहाँ यह ध्यातव्य है कि जीवको अपनी भाववती शक्तिके परिणमनस्वरूप निश्चयधर्मकी उत्पत्ति में कारणभूत मोहनीय कर्मका यथायोग्य उपशम, क्षत्र या क्षन्पशम करनेके लिए इस व्यवहारघर्मके अन्तर्गत एकान्त मिथ्यात्व के विरुद्ध प्रशभभाव, विपरीतमिध्यात्वके विरुद्ध संवेगभाव, विनयमिध्यात्वके विरुद्ध अनु कम्पाभाव संशयमिध्यात्वके विरुद्ध आस्तिक्यभाव और अविवेकरूप अज्ञानमिध्यात्वके विरुद्ध विवेकरूप सम्वरज्ञानभावको भी अपनेमें जागृत करनेकी आवश्यकता है। इसी प्रकार जीवको समस्त जीवोंके प्रति मित्रता ( समानता) का भाव, गुणीजनों प्रति प्रमोदभाव, दुःखी जीवोंके प्रति सेवाभाव और विपरीत दृष्टि, वृत्ति और प्रवृत्ति वाले जीवोंके प्रति मध्यस्थता (तटस्थ ) का भाव भी अपनाने की आवश्यकता है। इस तरह सर्वांगीणताको प्राप्त व्यवहारधर्म उपर्युक्त प्रकार निश्चयधर्मकी उत्पत्ति में साधक सिद्ध हो जाता है ।
२. प्रश्नोत्तर ४ के प्रथम दौरकी समीक्षा
प्रश्न प्रस्तुत करने में पूर्वपक्षको दृष्टि
पूर्वपक्ष आगम प्रमाणोंके आधारपर आयवहारधर्मको निश्चयधर्मका साधक स्वीकार किया है । यह बात उसके द्वितीय और तृतीय दौरोंके प्रतिपादनोंसे ज्ञात होती है । यतः उत्तरपक्ष व्यवहारधर्मको निश्चयधर्मको उत्तपत्तिमे साधक नहीं मानता है। अतएव पूर्वपने तत्त्वचर्चा के अवसरपर यह प्रश्न प्रस्तुत किया था कि "व्यवहारधर्म निश्चय में साधक है या नहीं" ?
उत्तरपक्षके उत्तरकी समीक्षा
उत्तरपक्षने अपने प्रथम दौर में इस बातको सिद्ध करने का प्रयत्न किया है कि व्यवहारधर्म निश्चयधर्ममें साधक नहीं हूँ | इसके समर्थनमें उसका कहना है कि निश्चयधर्मकी उत्पत्ति परनिरपेक्ष होती है। व इसकी पुष्टि के लिए वहीं पर उसने नियमसारको गाथा १३ और १४ को उपस्थित किया है और उनके आधार