Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 1
Author(s): Vanshidhar Vyakaranacharya, Darbarilal Kothiya
Publisher: Lakshmibai Parmarthik Fund Bina MP

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Page 467
________________ २८० जयपुर (खानिया) तत्त्वचर्चा और उसकी समीक्षा स्वपर सापेक्ष और निरपेक्ष अर्थात् परनिरपेक्षके भेदसे दो प्रकारकी है। इनमेंसे नर नारक, तिर्यग और पर्यायेविनायें हैविय स्वभाव पर्यायें है । 1 उत्तरपक्षने गाथा १३ और १४ का सम्मिलित अर्थ इस प्रकार किया है कि "इसी प्रकार दर्शनोपयोग स्वभाव और विभाव के भेयसे दो प्रकारका है । जो केवल इन्द्रियरहित और असहाय है वह स्वभाव दर्शनोपयोग कहा गया है। तथा चक्षु, अचक्षु और अवधि ये तीनों विभावदर्शन कहे गये हैं, क्योंकि पर्यायें दो प्रकार की हैं - स्वपरसापेक्ष और निरपेक्ष" । इसके आगे तात्पर्यके रूपमें उसने लिखा है कि "सर्वत्र विभागपर्याय स्वपरसापेक्ष होती है और स्वभाव पर्याय परनिरपेक्ष होती है" । उत्तरपक्ष द्वारा कृत उक्त अर्धपर विचार (१) उत्तरपक्ष द्वारा कृत उक्त अर्थ के सम्बन्ध में सर्वप्रथम में यह स्पष्ट करना चाहता हूँ कि इसमें उत्तरपश्नने "केवरु" शब्दका भ्रमवश "मात्र" अर्थ किया है जबकि प्रकरण के अनुसार "केवल" शब्दका "केवलोगयोग" अर्थ ही संगत है । (२) इसके पश्चात् मैं यह भी स्पष्ट करना चाहता हूँ कि जब गाथा १४ के उत्तरार्द्धका सम्बन्ध गाथा १३ के साथ नहीं है तो उसके आधारपर उत्तरपक्षने केवलदर्शनोपयोगको जो परनिरपेक्ष सिद्ध किया है वह असंगत है। माना कि गाथा १३ के उत्तराद्ध में केवलदर्शनोपयोगको इन्द्रियरहित और असहाय बतलाकर स्वभाव पर्याय मान्य किया है, परन्तु विचारणीय बात यह है कि इतने मासे उसे क्या परनिरपेक्ष पर्याय मानना उचित है ? क्योंकि केवललब्धिका उपयोगाकार परिणमन पदार्थसापेक्ष होता है । तात्पर्य यह है कि " चेतनालक्षणो जीव:" (पंचाध्यायी २-३ ) के अनुसार जीवका लक्षण चेतना है । यह चेतना ज्ञान और दर्शन दो भागों में विभक्त है। दोनों ही चेतनाओंके लब्धि और उपयोग के रूप में दो-दो भेद हैं । ज्ञानावरणकर्मके क्षयोपशम या क्षयसे चेतनाका जो विकास होता है उसे लत्रिरूप ज्ञानचेतना कहते हैं। और दर्शनावरणकर्मके क्षयोपशम या क्षयसे चेतनाका जो विकास होता है उसे लरूप दर्शनचेतना कहते हैं । समस्त ज्ञानावरणकर्मके क्षयसे ज्ञानचेतनाका जो विकास होता है उसे केवलज्ञान-त्रि कहते हैं। तथा मतिज्ञानावरणकर्मके क्षयोपशमपूर्वक होनेवाले ज्ञानचेतनाक विकासको मतिज्ञानलब्धि, श्रुतज्ञानावरण कर्मके क्षयोपशमपूर्वक होनेवाले ज्ञानचेतनाके विकासको श्रुतज्ञानलब्धि अवधिज्ञानावरणकर्मके क्षयोपशमपूर्वक होनेवाले ज्ञानचेतनाके विकासको अवधिज्ञानलब्धि और मन:पर्ययज्ञानावरण कर्मके क्षयोपशमपूर्वक होनेवाले दर्शन चेतनाके विकासको मन पर्ययज्ञानलब्धि कहा जाता है। इसी तरह समस्त दर्शनावरणकर्मकेायसे जो दर्शनचेतनाका विकास होता है उसे केवलदर्शनलब्धि कहते हैं । तथा चक्षुदर्शनदर्शनावरण कर्मके क्षयोपशमपूर्वक होनेवाले दर्शन चेतना विकासको चनुर्दर्शनलब्धि, अचक्षुदर्शनावरण कर्म के क्षयोपशमपूर्वक होनेवाले दर्शनचेतनाके विकासको अचक्षुदर्शनलब्धि और अवधिदर्शनावरण कर्मके क्षयोपशमपूर्वक होनेवाले दर्शनचेतनाके विकासको अवधिदर्शनलब्धि कहा जाता है । केवलज्ञानलब्धिका पदार्थावलम्बनपूर्वक होनेवाला परिणमन केवलज्ञानोपयोग कहलाता हूं । तथा प्रतिज्ञातलब्धि के पदार्थावलम्बनपूर्वक होनेवाले परिणमनको मतिज्ञानोपयोग, श्रुतज्ञानलब्धि के पदार्थावलम्बनपूर्वक होने वाले परिणमनको वृतज्ञानोपयोग अवधिज्ञानलब्धि के पदार्थावलम्बनपूर्वक होनेवाले परिणमनको अवधिज्ञानोपयोग और मनः पर्ययज्ञानलब्धिके पदार्थावलम्बनपूर्वक होनेवाले परिणमनको मन:पर्ययज्ञानोपयोग

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