Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 1
Author(s): Vanshidhar Vyakaranacharya, Darbarilal Kothiya
Publisher: Lakshmibai Parmarthik Fund Bina MP

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Page 458
________________ शंका-समाधान ३ की समीक्षा कि 'पहला गुणस्थानवी जीव जब सम्यक्त्वके सन्मुख होता है तब शुद्ध परिणामोंके अभाव में भी असंख्यात गुणी निर्जरा, स्थितिकाण्डकपात और अनुभागकाण्डकघात करता ही है।" इत्यादि। इराके समाधानमें आगे उत्तरपनने लिखा है कि "प्रथम गुणस्थानमें इस जीवके परद्रव्य भावोंसे भिन्न आत्तास्थभावके सन्मुख होने पर जो विशुद्धि होती है वह विशुद्धि ही असंख्यातगुणी निर्जरा आदिका कारण है।' इत्यादि। इस सम्बन्ध में मेरा कहना यही है कि प्रथम गणस्थानवी जीवके जो असंख्यातगणी निर्जरा आदि कार्य होते हैं वे सब कार्य करणलब्धिके प्रभावसे ही होते हैं। इतना अवश्य है कि उस करणलब्धिका विकास सस जीवमें शुभोपयोग पूर्वक ही होता है. इसलिये परम्परया भोपयोग भी उसमें कारण होता है । पूर्वपक्षके कथनका भी इतना ही आशय है । (१५) आगे त. च. पृ० १२२ पर ही उत्तरपक्ष ने जो वह लिखा है कि "अपरपक्षने दया धर्म है, इसकी पुष्टिमें स्वामी कार्तिकेयानुप्रेक्षा, उसको टीका, नियमसारगाथा ६ को टीका, आत्मानुशासन, यशस्तिलक, आचार्य कुन्दकुन्तकृत द्वादशानुप्रेक्षा, भावपाहुड, शीलपाइड और मूलाराधनाके अनेक प्रमाण उपस्थित किये है। किन्तु उन सब प्रमाणोंसे यह प्रख्यापन होता है कि जो निश्चयदया अर्थात् वीतराग परिणाम है वही आत्माका यथार्थ धर्म है, सराग परिणाम आत्माका यथार्थ धर्म नहीं है" । इत्यादि । इस सम्बन्धमें मैं सामान्य समीक्षा हो स्पष्ट कर चुका हूँ कि जीवको भावयती शक्तिके शुद्ध परिणामस्वरूप जो दया धर्म है वह निश्चयधर्मके रूपमें यथार्थ है तथा जीवकी क्रिपावती शक्तिके परिणमनस्वरूप अपयारूप अशुभ प्रवृत्तिसे निवृतिपूर्वक होनेवाली दयारूप शुभ प्रवृत्ति भी शुभ-शुद्ध रूप व्यवहारधर्मके रूपमें यथार्थ ही है कल्पनारोपित नहीं है । इतना ही नहीं, पुण्यमय प्रवृत्तिरूप दया भी है जो इन दोनोंसे पथक् है। इनमें से किसका क्या कार्य है यह भी मामान्य समीक्षामें स्पष्ट किया जा चुका है। उत्तरपक्षने प्रकृत विषयको लक्ष्यमें लेकर आगे भी जितना विवेचन पूर्वपशकी आलोचनाके रूपमें किया है उसका निराकरण भी मेरे उपर्युक्त कथनसे हो जाता है । (१६) आगै त० च० पृ० १२४ पर उत्तरपक्षमै जो यह लिखा है कि "अपरपक्षने सम्यग्दृष्टिके शुभ भावोंको वीतरागता और मोक्ष प्राप्तिका हेतु कहा है और उसकी पुष्टिमें प्रवचनसार आदि ग्रन्थोंका नामोलेख भी किया है। साथ ही यह भी लिखा है कि सम्यग्दृष्टि का शुभभाव कर्मचेतना न होकर ज्ञानचेतना माना गया है । किन्तु यह सब कथनमात्र है क्योंकि आगममें न तो कहीं शुभभावोंको वीतराग और मोक्षप्राप्ति का निश्चय हेतु बतलाया है और न कर्मचेतनात्रा अन्तर्भाव ज्ञानचेतनामें ही किया है ।'' इत्यादि । इस सम्बन्धमें मेरा यह कहना है कि पूर्वपक्षके तत च. पृ० १०६ पर किये गये प्रकुस विषय संबंधी कथनको न समझकर ही उत्तरपक्षने यह सब लिख डाला है। यदि उत्तरपक्ष प्रकृतमें पूर्वपक्षको स्वीकृत पुण्य, ब्यवहारवर्म और निश्चयधर्मके भेदको समझनकी चेष्टा करता तो उसे समझमें आ जाता कि पूर्वपक्षका यह कथन व्यवहारधर्मसे ही सम्बन्ध रखता है मात्र पुण्यसे उसका कोई सम्बन्ध नहीं है। तथापि आगममें मात्र शुभ भावोंको भी वीतरागता और मोक्षप्राप्तिका परम्परवा हेतु बतलाया गया है तथा व्यवहारधर्मरूप शुभ भावोंको भी निश्चयधर्मरूप वीतरायताका और मीक्षप्राप्तिका हेतु बतलाया है। परन्तु यहाँ किसको किमरूपमें हेतु बतलाया है यह बात इसी प्रश्नोत्तरकी समीक्षामें पहले बतलाई जा चुकी है और प्रश्नोत्तर ४ की समीक्षामें भी इस बातको बतलाया जायेगा। उत्तरपक्षने अपने कपनमें जो यह लिखा है कि "शुभभाव

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