Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 1
Author(s): Vanshidhar Vyakaranacharya, Darbarilal Kothiya
Publisher: Lakshmibai Parmarthik Fund Bina MP

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Page 457
________________ २७० जयपुर (खानिया) तत्त्वचर्चा और उसको समीक्षा आत्मामें जो राम्यग्दर्शनादि रूप विराति होती है उसके कारण संवर-निर्जरा होती है और शुभोपयोगके कारण आस्त्रिव-बन्ध होता है" इत्यादि। परन्तु उत्तरपक्षका यह कथन भी अयक्त है, क्योंकि शुभोपयोग स्वयं साक्षात् आसव और उक्त प्रकारके बन्धका कारण नहीं होता । अपितु शुभोपयोगसे प्रभावित योग ही आस्त्रव और उक्त प्रकारके बन्धका साक्षात कारण होता है तथा योगका निरोध संवरका कारण होता है और निर्जरा तो क्रियावती शक्तिके परिणमन स्वरूप तपश्चरणसे अविपाक रूपमें होती है व निषेकक्रमसे सविपाक रूपमें स्वतः हुआ करती है। सम्यग्दर्शनादिरूप विशुद्धि संवर-निर्जराका कारण नहीं होती है । आस्रव और बन्ध तथा संवर ओर निर्जराके होने की प्रक्रियाका विस्तारसे युक्तिसंगत विवेचन सामान्य समीक्षामें किया जा चुका है। उत्तरपक्षन चतुर्थादि गुणस्थानों में आत्मानुभूति होनेके आधार पर शुद्धोपयोगको सिद्धिके लिए जितने आगम प्रमाण यहाँ दिये है जन सन्त्र प्रमाणोंका समन्धय मेर उपयुक्त कथनके साथ होनमें कोई बाधा नहीं आती । केवल उत्तरपक्षको अपना दृष्टिकोण परिवर्तित करने की आवश्यकता है। इसी प्रकरणमें तच० ५० १२१ पर ही आगे उत्तरपक्षने लिखा है कि ''अपरपक्षका कहना है कि एक कारणसे अनेक कार्य होते छग देखे जाते हैं। समाधान यह है कि शुभोपयोग संबर-निर्जराका विरोधी है।" इसकी सगीक्षामें मेरा यह कहना है कि उत्तरपक्षके समावानरूप कथनसे यह बात तो सिद्ध होती ही है कि एक कारणसे अनेक कार्यों का होना उत्तरपक्षको भी अमान्य नहीं है। केवल शुभोपयोगको वह संबरनिर्जराका कारण नहीं मानना चाहता है। परन्तु मैं सामान्य समीक्षामें स्पष्ट कर चुका हूं कि न तो कोई उपयोग साक्षात आस्रव-घका कारण होता है और न ही कोई उपयोग साक्षात् संवर-निर्जराका कारण होता है। इतना अवश्व है कि यथायोग्य उपयोगस प्रभावित योग ही साक्षात आलव पूर्वक प्रकृति, प्रदेश, स्थिति और अनुभाग बन्धका कारण होता है तथा योगका निरोध ही संवर पूर्वक निर्जराका कारण होता है। उत्तरपक्षने अपने पक्ष के समर्थनमें जितने भी आगम प्रमाण उपस्थित किये हैं उनका आवाय उसे आस्रव-बंध और संबर-निर्जरामें साक्षात् कारणभूत योग और योगनिरोधको लक्ष्यमें रखकर ही ग्रहण करना था । तात्पर्य यह है कि अशुभोपयोगसे प्रभावित योग परिणाम और शभोपयोगसे प्रभावित योग परिणाम केवल आस्रव पूर्वक उपयुक्त बंधके ही कारण होते हैं। परन्तु शुभोपयोगक आधारपर ही योगमें अशुभसे निवृत्तिपूर्वक शुभमें प्रवृसिम्प परिणमन होता है इस तरह शुभोपयोग अशुभसे निवृत्तिरूप योग निरोधका कारण होनसे तो परम्परया संबरपूर्वक निर्जराका भी कारण सिद्ध होता है व शभमें प्रवत्तिका योगका कारण होनेसे परम्परया आसवपूर्वक उक्त प्रकारके बंधका कारण सिद्ध होता है । अशुभोपयोगका अभाव होनेपर योगको अशुभरूपताका व शुभोपयोगका अभाव होनेपर योगको शुभरूपताका तो अभाव होता है, परन्तु तब भी योग अपने शुद्धरूपमें अर्थात गुभरूपता और अशुभकगतासे रहित होकर विद्यमान रहता है । अतएक शुद्धोपयोगके सद्भाव में भी शुद्धयोगके आधारपर एकादा, द्वादश और प्रयोदश गुणस्थानोंमें यथायोग्य आस्रवपूर्वक प्रकृति और प्रदेशके रूपमें बंध हुआ ही करता है। इसी तरह शुद्धोपयोग संवर और निर्जराका कारण नहीं होता है, क्योंकि शुद्धोपयोगका सदभाव रहते हुए भी ज्ञानावरणादि तीनों घातिकर्म तथा चारों अघातिकर्म अपना-अपना कार्य यथास्थान निराबाध करतं ही रहते हैं। इसी प्रकरणमें उत्तरपक्षने तच०५० १२२ पर प्रथम तो पूर्वपक्षका मह कथन उद्धत किया है

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