Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 1
Author(s): Vanshidhar Vyakaranacharya, Darbarilal Kothiya
Publisher: Lakshmibai Parmarthik Fund Bina MP
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शंका-समाधान ३ की समीक्षा सक आत्मानुभूति होते हुए भी पूर्वोक्त प्रकार शुभोपयोगका सद्भाव मान्य करना असंगत नहीं है, क्योंकि ऐसा कोई नियम नहीं है कि आत्मानुभूति शुद्धोपयोगी जीवके हो होती है। चतुर्थगुणस्थानमें आत्मानुभूतिको स्वीकार करनेका आधार यह है कि वहाँ जीवमें निश्चय (भान) सम्पग्दर्शन और निश्चय (भाव) सम्यज्ञानके रूपमें आत्मविशुद्धि प्रगट होती है। पंचम गुणस्थानमें जीवको विशेषरूपसे आत्मानभूति होती हैं, क्योंकि वहीं उसमें निश्चय (भाव) देशविरति सम्यक्चारित्ररू, आत्मविशुद्धि प्रगट हो जाती है। प्रष्ट गुणस्थानमें जीवको और भी विशेष रूप आत्मानुभूति होती है, क्योंकि वहां उसमे निश्चय (भाव) सर्व विरति सभ्यक्चारित्ररूप आत्मविशुद्धि प्रगट रहती है। इसी तरह आगे भी उत्तरोत्तर जैसी-जैमी आत्मविशुद्धिकी विशेषता आती जाती है वैसी वैसी आत्मानुभूति में भी विशेषता आती जाती है। परन्तु इसका यह अभिप्राय कदापि नहीं फि चतुर्थ गुणस्थान से लेकर दशम गुणस्थान तक यदि आत्मानुभूति होता है तो उन गुणस्थानोंमें जीवोंके शुद्धोपयोगका सदभाव मान्य करना आवश्यक है। वास्तविक बात है कि आत्मानुभूति तो अशुभोपयोगी मिथ्यादष्टि जीवको भी होती है। परन्तु उसकी आत्मानुभूतिको आत्मानुभूति इसलिये नहीं कहा जाता है कि वह आत्मानुभूतिः विकूत आत्मस्थितिके अनुसार विकृतरूपमे ही होती है। इससे निर्णीत होता है कि आत्मानुभूति जीवको प्रत्येक गुणस्थान में होती है, परन्तु जहाँ जमी आल्गस्थिति रहा करती है जमोके अनुरूप वहाँ बसी ही आत्मानुभूति जीवको होती है। इसके अतिरिक्त यदि उत्तरपक्ष चतुर्थ गुणस्थानसे लेकर दशम गुणस्थान तक वैसी आत्गालभतिको कल्पना करता है जैसी एकादशा और द्वादश गुणस्थानों में होती है तो यह उसका भ्रम है, क्योंकि एकादश और द्वादश गुणस्थानों में होनेवाली आरमानुभूतिके सदृश आत्मानुभूतिका होना इन गुणस्थानोंके पूर्व सम्भव नही है। यदि उत्तरपक्ष आत्मानुभूतिमें होनेवाली मग्नताको आत्मानुभति कहना चाहे तो यह मम्नता तो प्रत्येक गुणस्थान में भिन्न-भिन्न ढंगसे हआ करती है, क्योंकि अशुभ ध्यानस्वरूप मग्नता प्रथमगुणस्थानमें भी सम्भव है । इराका' यह आशय तो कदापि नहीं है कि जैराा शुद्धात्मानुभवन सतत जीवको एकादश और द्वादश गुणस्थानों में होता है वैसा ही शुद्ध आत्मानुभवन चतुर्थादि गुणस्थानों में अल्पकालके लिए होता है। हाँ, बदि उत्तरपक्ष सुदात्मतत्वके श्रद्धान और ज्ञानके रूपमें आत्मानुभूतिकी स्वीकृति चतुर्थादि गुणस्थानोंमें मानता हो तो ऐसा श्रद्धान और ज्ञान हुए बिना मिथ्यादृष्टि जीव चतुर्थ गुणस्थानको प्राप्त नहीं कर सकता है । इतना ही नहीं, अभय जीव भी ऐसा श्रद्धान और ज्ञान हुए बिना क्षयोपशम आदि चार लब्धियों का विकास नहीं कर सकता ।
उत्तरपक्षाका कहना है कि "चौसे सात गुणस्थान तक केवल शुद्धोपयोग हो होता है ऐसा जाननासमझना मिथ्या है । इतना अवश्य है कि इन गुणस्थानोंमें जो आत्मानुभूति होती है उसे धर्मभ्यान हो कहते है, शुक्लध्यान नहीं । शुक्लध्वानमें एक मात्र दाद्धोपयोग ही होता है । परन्तु धर्मध्यानमें शुभोपयोग भी होता है और शुद्धोपयोग भी। यही इन दोनोंमें विशेषता है।" (ताचा १० १२१) । सो उत्तरपक्षाका यह कथन अयुक्त है, क्योंकि धर्मध्यानमें तो शुभोपयोग ही होता है । मात्र हो पृथक्त्ववितर्क शुक्रध्यानमें शुभोपयोग ही होता है। उसमें भी शुद्धोपयोग नहीं होता। अन्यथा वहाँ अर्थ, चंजन और योगको संक्रान्ति होना असम्भव होगा। पथक्त्ववितर्क शुक्लध्यानमें शुद्धोपयोगी माना जाये और अर्थ, व्यंजन और योगको संक्रांति भी मानी जाये ये दोनों बात अखण्ड और निर्विकल्पक शुद्धोपयोग रहते हुए सम्भव नहीं है।
इसी प्रकरणमें त• च० पृ० १२१ पर ही आगे उत्तरपक्षने लिखा है कि "चतुर्थादि गुणस्थानोंमें पाभोपयोगके काल में उससे आसाय-बन्ध तथा संबर-निर्जरा दोनों होते होग ऐसा कहना भी ठीक नहीं, क्योंकि