Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 1
Author(s): Vanshidhar Vyakaranacharya, Darbarilal Kothiya
Publisher: Lakshmibai Parmarthik Fund Bina MP
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शंका-समाधान ३ की समीक्षा
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(१४) उत्तरपक्षने तक च०ए०१२० पर आगे यह अनुच्छेद लिखा है-"अपरपक्षका कहना है कि चौथेसे सातवें गणस्थान तक शुभोपयोग होता है । अन्य कोई शुखोपयोग आदि उन गुणस्थानों में नहीं होता। किन्तु यह कथन भी यक्त नहीं, क्योंकि चतुर्थादि गुणस्थानोंमें आत्मानुभूति होती ही नहीं यह मानना मागम विरुद्ध है।" इसकी समीक्षा निम्न प्रकार है
आगममें उपयोग के धर्म और अधर्म सापेक्ष तीन भेद बतलाये गये है-अशुभोपयोग, शूभोपयोग और शुद्धोपयोग। इनमें से अशुभोपयोग अधर्म सापेक्ष है तथा शुभोपयोग और शुद्धोपयोग ये दोनों धर्म सापेक्ष हैं । इनके लक्षण निम्न प्रकार हैं:
___ जीवकी भात्रवती शक्तिके परिणमन स्वरूप हृदयके सहारेपर होनेवाले अतत्त्वश्रद्धान और मस्तिष्कके सहारेपर होनेवाले अत्तस्यज्ञान पूर्वक इधित विचार दषित भावनायें आदिके रूप में जीवके जो बिद
उन्हें अशभोपयोग करता तथा जीवकी भाववती शक्तिके परिणमन स्वरूप उदय के सहारेपर होनेवाले तत्वज्ञान और भस्तिक महारपर होनेवाले तत्वज्ञान पूर्वक उत्तम विचार, उत्तम भावनायें आदिके रूपमें जीवके शो विकला बनने हैं उन्हें शुभोपयोग कहते हैं । इसी प्रकार अशुभोपयोगकी गमाप्तिपूर्वक शुभोपयोगके रामाप्त हो जानेपर जीवको भावनप्ती शापितके परिणमन स्वरूप उपयोगको जो शुद्ध, स्वाधिन, अखण्ड, निर्विकल्पक और निश्चल दशा हो जाती है उसे गुद्धोपयोग कहत है। जीवमें इस शुद्धोपयोगके प्रगट होनेकी प्रक्रिया निम्न प्रकार है:
अभय और भव्य मिथ्यादूष्टि जीच अपनी क्रियावती शक्तिको परिणमनस्वरूप जो संकल्पी पापमय अशुभ प्रवृत्ति किया करते है वह प्रवृत्ति घे अशुभोपयोग के आधारपर ही करते हैं और वे जीव यदि कर्त्तव्यवश पुण्यमय शुभ प्रवृत्ति करने लगते है तो उसे वै शुभोपयोगके आधारपर करते हैं। इसके अनन्तर यदि वे दोनों प्रकारके जीव शुभोपयागके आधारपर उस संकल्पी पापमय अशुभ प्रवृत्तिको सर्वथा त्यागकर क्रियावती शक्तिके परिणमन स्वरूप आरंभी पापमय अशुभ प्रवृत्तिके साथ पुण्यमय शुभ प्रवृत्ति करने लगते हैं तो इनकी वह प्रवृत्ति संकल्पी पापमय अशुभ प्रवृत्तिस सर्वथा निवृत्तिपूर्वक पुण्यमय शुभ प्रवृत्तिरूप हग्नेसे उपयहारधर्मका प्रारम्भिक रूप धारण कर लेती है । तथा इस प्रकारके व्यवहारवर्भके आधारपर अभव्य जीव अपने में क्षयोशम, विशुद्धि, देशना और प्रायोग इन चार लन्धियोंका विकास करता है और भव्य जीव इसी व्यवहारधर्मके आधारपर अपन में उन चार लब्धियों के साथ करणलब्धिका भी विकास कर लेता है व इस करणलब्बिके आधारपर वह भव्य जीव सर्वप्रथम दर्शनमोहनीयकर्मकी यथासंभव रूपमें विद्यमान मिथ्यात्व, सम्पग्मिथ्यात्व और सम्यक्त्वप्रकुतिरूप तीन व चारित्रमोहनीयकर्मके प्रथम भेद अनन्तानुबन्धी कपायकी क्रोध, मान, माया और लोभमप चार इस तरह सात प्रवृत्तियोंका उपशम, क्षय या क्षयोपशम करके चतुर्थ गुणस्थानके प्रथम समयमें भाववती शक्तिक परिणमन स्वरूग निश्चय (भाव) सम्यग्दर्शन और निदचय (भाव) सम्यक्ज्ञान के रूपमें आत्मविशुद्धिको प्राप्त प.रता है। ऐसा चतुर्थ गुणस्थानवर्ती जीव शुभोपयोगके आधारपर ही क्रियावती शक्तिये परिणमन स्वरूप आरम्भी पापभय अशुभ प्रवृत्ति के एक देश त्यागपूर्वक पुण्यभय शुभ प्रवृत्तिरूप दूसरे प्रकार के व्यवहारवर्गको अपनाता है। तथा इस व्यवहारधर्म के अनुसार प्राप्त करलब्धिके आधारपर वह जीव चरित्रमोहनीयकर्म के द्वितीय भेद अप्रत्याख्यानावरण कषायकी क्रोध, मान, माया और लोभ प्रकृतियोंका क्षयोपशम करके पंचमगणस्थानके प्रथम समयमै भावबती शक्तिको परिणमनस्वरूप निश्चय (भाव) देशविरति सम्यकचारित्ररूप आत्मविशुद्धिकी प्रगट करता है। ऐसा पंचमगुणस्थानवी जीव भी उसी शुभोपयोगके आधारपर