Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 1
Author(s): Vanshidhar Vyakaranacharya, Darbarilal Kothiya
Publisher: Lakshmibai Parmarthik Fund Bina MP

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Page 452
________________ शंका-समाधान ३ की समीक्षा एयकता थी । उसका भाशय यह तो है ही कि पाप और पुण्यरूप कर्म द्रव्यान्तरस्वभाव होनेसे आस्रव और बन्धके ही कारण है परन्तु इससे अतिरिक्त उसका यह भी आशय है कि शुभ-शुद्ध रूपताको प्राप्त व्यवहारधर्मकी शुभरूपता भी आस्रव और बन्धका ही कारण होती है । यह बात समयसार कलमा' १०९-११० और १११ के सम्मिलित अर्थपर ध्यान देनेसे समझ में आ सकती है। (१३) उत्तरपक्षने त च० १० ११६ पर आगे यह अनुच्छेद लिखा है-"हमें प्रसन्नता है कि अपरपझने रागमात्रको बन्धका हेतु मान लिया है। किन्तु इतना स्वीकार करनेके बाद भी उसकी ओरसे जो रागांश और रत्नत्रयांशमें एकत्व स्थापित करने के लिए यक्ति दी गई है वह सर्वथा अयुक्त है।" आगे इसकी समीक्षा की जाती है उत्तरपक्षने अपने इस अनुच्छेदमें जो यह कथन किया है कि "हमें प्रसन्नता है कि अपरपक्षने रागमात्रको बन्धका हेत मान लिया है" सो यह कथन करनेसे पहले ही उसे पूर्वपक्षके प्रकत विषय सम्बन्धी कथनोंके आधारपर यह ज्ञात हो जाना चाहिए था कि पूर्वपक्षने रामभावको बन्धका ही कारण माना है। उसने कहींपर भी यह नहीं कहा है कि रागभाव बन्धका कारण नहीं है तथा यह भी नहीं कहा है कि रागभाव मोनका कारण है। पूर्वपक्ष के कथनके दिपपमें उत्तरपक्षको यह भी ध्यान देना चाहिये था कि उसने (पूर्वपक्षने) रागांश और रत्नत्रयांदामें मिथित अखण्डभाव तो स्वीकार किया है, परन्तु अखण्ड एकत्वको नहीं स्वीकार किया है। यद्यपि पूर्वपक्षने त० च० पृ० १०१ पर यह अवश्य कहा है कि "जीवदया करना धर्म है । पुण्यभाव धर्मरूप है । पुण्यभाव या शुभभावोंसे संवर-निर्जरा तथा पुण्यकर्मबन्ध होता है ।" परन्तु उसके इस कथनका सम्बन्ध प्रकृसमें पुण्यभावरूप जीवदयासे न होकर व्यवहारधर्मरूप जीवदयासे ही है। यह बात उसफेत. च. १० १०३ पर निर्दिष्ट "आपने रागभावको केन्द्र बनाकर पुण्यभावों या शुभभावोंको केवल कर्मबन्धके साथ बांधनेका प्रयल किया है। यह शुभभावोंकी अवान्तर परिणतियोंपर दृष्टि न जानेका फल जान पड़ता है।" इत्यादि कथनसे शास होती है। पूर्वपक्षक त. च० १० १०३ पर निर्दिष्ट कथनसे यह बात भी ज्ञात होती है कि वह पक्ष केवल पुण्यभाषरूप जीवदयाको ही नहीं, अपितु उक्त व्यवहारधर्मरूप जीवक्ष्याफे अंशभूत पुण्यम् १. सन्यस्तव्यभिवं समस्तमपि तत्कमेव मोक्षाथिना. सन्यस्ते सति तत्र का किल क्रया पुण्यस्य पापत्य वा। सम्यक्त्वादिनिजस्वभावभवनान्मोक्षस्य हेतुर्भवन्नैष्कर्म्यप्रतिबद्धमुद्धतरसं ज्ञानं स्वयं धावति ।।१०९|| यावत्पाकमुपैति कर्मविरतिनिस्म सम्पङ् न मा, कर्मज्ञानसमुच्चयोऽपि विहितस्तावन्न काचित्क्षतिः । किन्त्वनापि समुल्लसत्यवतो पत्कर्म बन्धाय तमोक्षाय स्थितमेकमेव परमं ज्ञानं विमुक्त स्वतः ।।११०।। मानाः कर्मनयावलम्बनपरा ज्ञानं न जानन्ति ये, मग्ना माननयषिणोऽपि यदप्तिस्वमहम्दमंदोद्यमाः । विश्वस्योपरि ते तरति सततं ज्ञानं भवन्तः स्वयं, ये कुर्वन्ति न कर्म जातु न वशं यान्ति प्रमादस्म् च ॥१११॥ स०-३४

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