Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 1
Author(s): Vanshidhar Vyakaranacharya, Darbarilal Kothiya
Publisher: Lakshmibai Parmarthik Fund Bina MP
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जयपुर (खानिया) तत्त्वचर्चा और उसकी समीक्षा उत्पन्न होता है । अतः वह स्वरूपसे ही सब प्रकारके व्यवहारसे अतीत है । उसपर किसी प्रकारका उपचार लागू नहीं होता । इनमेंसे प्रथम विकल्प विवादरहित है। केवल यह ज्ञातव्य है कि एक वीतरागभाव जीवकी क्रियावती शक्तिके परिणमनरूप होता है और एक वीतरागभाव जीवकी भाववती शक्तिके परिणमनरूप होता है। इस बातको पूर्वमें स्पष्ट किया जा चुका है। दूसरा विकल्प भी विवादरहित है। परन्तु वहाँ भी यह बात ज्ञातव्य है कि केवल परभावरूप जो शुभ भाव है वह तो आस्रव और बन्धका ही कारण होता है व उसका सदभाव मंकल्पी पापोंमें प्रवृत्त मिथ्यादृष्टि जीवके ही होता है। परन्तु उसके आवारपर ही वह जीव संकल्पीपापरूप अशुभसे सर्वथा निवृत्तिपूर्वक शुभमें प्रवृत्तिरूप व्यवहारधर्मको अंगीकार करता है जो व्यवहारधर्म मानव और बन्धके साथ संवर और निर्जराका भी कारण होता है। तीसरे विकल्पक विषयमें इतना स्पष्टीकरण आवश्यक है कि एक वीतरागभाव शुद्ध स्वभावभूत निदचयधर्मके रूपमें जीयकी भाववती शक्तिकै परिणमनस्वरूप होता है जो न तो आस्रव और बन्धका कारण होता है और न ही सेवर और निर्जराका कारण होता है तथा एक वीतरागभाव प्रवृत्तिसे निवृत्ति के रूपमें जीनकी क्रियावती शक्तिके परिणमनस्वरूप भी होता है जो संबर और निर्जराका कारण होता है। चौथे विकल्पके विषयमें सामान्यरूपसे तो यही कहा जा सकता है कि वह अणुमात्र भी विवादको वस्तु नहीं है । परन्तु विशेष रूपसे यह कहना चाहिए कि व्यवहारधर्मका अंश जो वीतरागभाव है वह तो वास्तविक रूपमें ही संबर और निर्जराका कारण होता है और उसके साथ उसका जो अंश पुण्यभाव है वह वास्तविक रूपमें ही आनद और बम्धका कारण होता है। यहां किसी भी प्रकारके उपचारके लागू करनेकी कोई आवश्यकता ही नहीं है और न पूर्वपक्षने किसी भी प्रकारका उपचार यहाँ माना ही है। ससरपक्षने चार विकल्पोंका कथन करने के अनन्सर जो यह लिखा है कि "क्या ही अच्छा हो कि अपरपक्ष रागरूप पुण्य भाव और वीतरागावमें वास्तविक अन्तरको समझकर 'दया' पदका जहां जो अर्थ इष्ट हो उसे उसी रूपमें स्वीकार कर ले और इस प्रकार शुभभाव और वीतरागभावमें एकत्व स्थापित करने से अपने को जुदा रखे ।" सो यह उसकी पूर्वोक्त प्रकारकी भ्रमबुद्धिका ही परिणाम है तथा अशुभसे निवृत्तिरूप शुद्ध और शुभमें प्रवृत्तिरूप शुभके रूपमें शुभ-शुद्ध रूप व्यवहारधर्मभूत दयाको न माननेका परिणाम है अतः उसका यह कथन उसपर ही लागू होता है । पूर्वपक्ष शुभभाय और वीतरागभावमें न तो एकत्व मानता है और न कहीं पर उसने उन दोनोंम एकस्व स्थापित करनेकी बात कही ही है।
(१२) उत्तरपक्षने त च० पृ० ११६ पर ही आगे "हमें शुभभावों को अचान्तर परिणतियोंका पूरा ज्ञान हो या न हो" इत्यादि जो कुछ भी कथन किया है वह भी शुभभावसे अतिरिक्त उक्त शुभ-शुद्ध भावरूप व्यवहारधर्मको न माननेका ही परिणाम है । यदि वह शभभावसे अतिरिक्त शभ-शुद्ध भावरूप आ धर्मको भी मान्य कर ले तो उसके व्यर्थ के सब विकल्प समाप्त हो जायेंगे | उत्तरपक्षने अपने पक्षके समर्थन में जो समयसारखी गाथा १५६ की आचार्य अमृतचन्द्र कृत टीकाको उपस्थित किया है उसका अभिप्राय यही है कि केवल शुभ प्रवृतिरूप त, तप आदि अर्थात् संकल्पी पापमय प्रवृत्तियों के साथ किये जानेवाले अत, तप आदि आस्रव और बन्धके ही कारण होते है । परन्तु यदि वे ही प्रत, तप आदि कम-से-कम संकल्पो पापोंसे निवृत्तिपूर्वक किये जावं तो अभब्य जीवमें उनके बलमे क्षयोपशम, विशुद्धि, देशना और प्रायोग्य लब्धियोंका विकाम होता है और भव्य जीवमें उनके ही बलसे इन लब्धियोंके साथ करणलब्धिका भी विकास हो जानेपर मोहनीय कर्मका यथास्थान यथायोग्य उपशम, क्षय या भयोपशम होनेपर शुम स्वभावभत निश्चयधर्म प्रकट होता है । उसरपक्षको वहींपर स्वयं उयत समयसार कलश ११० के अभिप्रायको भी समझनेकी आव