Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 1
Author(s): Vanshidhar Vyakaranacharya, Darbarilal Kothiya
Publisher: Lakshmibai Parmarthik Fund Bina MP

View full book text
Previous | Next

Page 449
________________ २६२ जयपुर (खानिया) तत्त्वचर्चा और उसकी समीक्षा (६) आगे उत्तरपक्षने त० प० पृ० ११३ पर ही जयपवलाके “शुह-सुद्धपरिणामेहि कम्मक्खयाभाव तक्खयाणुववत्तदो" कथनकी भी वर्षा उठाई है तथा इसके अभिप्रायका निर्णय करनेके लिए प्रवचनसार गाथा ११ की आचार्य जयमेन कृत टीकाको भी प्रस्तुत किया है और लिखा है कि "यह आगम प्रमाण हैं । इस द्वारा शुभ और शुद्ध दोनों प्रकारके भावोंका क्या फल है यह स्पष्ट किया गया है । इस द्वारा हम यह अच्छी तरह जान लेते हैं कि शुभ भावोंको जो श्री जयधवलामें कर्मक्षयका हेतु कहा गया है वह किस रूपमें कहा गया है । वस्तुतः तो वह पुण्यबन्धका ही हेतु है । उसे जो कर्मक्षयका हेतु कहा गया है वह इस आशयमे कहा गया है कि उसके अनन्तर जो शुदोपयोग होता है वह वस्तुतः कर्मक्षयका हेतु है इसलिये उपचार उसे भी कर्मक्षयका हेतु कहा गया है ।" इसकी समीक्षा निम्न प्रकार है जयधवलाके उक्त कथनका क्या अभिप्राय होना चाहिए, इसका विस्तारसे विवेचन मैंने सामान्य समीक्षामें किया है। उसमें मैंने स्पष्ट किया है कि शुभ-शव परिणामोंका अर्थ उस बचनमें जीवकी क्रियावती शक्तिके परिणमनस्वरूप अशुभसे निवृत्तिरुप शुद्ध और शुभमें प्रवृत्तिरूप शुभके रूपमें ही ग्रहण करना युक्त है, क्योंकि जीवकी क्रियावती शक्तिके परिणमनस्वरूप केवल शुभ परिणाम आस्रव और बन्धका ही कारण होता है और भाववती शक्तिके परिणमनस्वरूप शुद्ध परिणाम संबर और निर्जरा पूर्वक प्रगट होनेसे संवर और निर्जराका कारण नहीं है । सरह उत्त जमा 'यह आगम प्रमाण -इत्यादि जो उपर्युक्त अपना अभिप्राय प्राट किया है वह असंगत सिद्ध हो जाता है। उस कथनमें उत्तरपक्षने जो यह बतलाया है कि शुभ भाव तो पुष्यबन्धका ही हेतु है, सो इसमें तो विरोध नहीं है परन्तु शुद्धोपयोग भी तो कर्मसका हेतु नहीं है, क्योंकि शुद्धोपयोगकी उत्पत्ति ही कर्मक्षय पूर्वक होती है । तथा शुद्धोपयोगको कर्मक्षयका हेतु मान्य करने में अन्य आपत्तियां भी उपस्थित होती है जिन्हें मैं सामान्य समीक्षामें प्रकट कर चुका हूँ। इस तरह जयश्वलाका "सृह सुद्धपरिणामेहि"-इत्यादि अचन अशुभसे निवृत्तिपूर्वक शुभमें प्रवृत्तिरूप व्यवहारधर्मका ही ज्ञापन करता है यही मानना श्रेयस्कर है। (७) त• च पृ० ११४ पर "शुभभाव बन्धका कारण है" इसकी सिद्धिके लिए उत्तरपक्षने पंचास्तिकाय गाथा १४७ को उपस्थित किया है । परन्तु जब "शुभभाव बन्धका कारण है" इसे पूर्वपक्ष भी मानता हैं तो उत्तरपक्षको इस सम्बन्ध में इतना प्रयास करनेकी आवश्यकता ही नहीं थी। (८) आगे तम् प० पृ. ११४ पर ही उत्सरपक्षने 'हमने तो जीक्दमा किस अपेक्षासे पुण्यभाव है और किस ओक्षासे वीतरागभाव है" इत्यादि कथन किया है। इसके सम्बन्धमें मेरा यह कहना है कि उत्तरपक्षको इतना और ज्ञातव्य है कि वीतराग परिणाम दो प्रकारका होता है-एक तो जीवकी भाववतीशक्तिका मोहनीयकर्मके उपशम, क्षय या क्षयोपशममें होनेवाला शुद्ध स्वभावभूत निश्चयधर्मरूप परिणाम और दूसरा जौवको क्रियावती शक्तिका मोहनीयकर्मके उपशम, क्षय या क्षयोपशममें कारणभूत अशुद्धसे निवृत्तिपूर्वक शुभमें प्रवृत्तिरूए और अन्तमें शुभसे भी निवृत्तिरूप व्यवहारधर्मरूप परिणाम । इस बातको मैं द्वितीय दौरकी समीक्षामें स्पष्ट कर चुका है। (९) उत्तरपक्षने आगे त० च पृ० ११४ पर ही पुरुषार्थसिद्धधुपाग आदि शास्त्रीय प्रमाणोंके आधारपर मह कथन किया है कि "यदि जीवदयाको शुभ परिणामरूप लिया जाता है तो उसका अन्तर्भाव आस्रव और बन्ध तत्त्वमें होता है और उसे शुद्ध परिणामरूप लिया जाता है तो उसका अन्तर्भाव संबर,

Loading...

Page Navigation
1 ... 447 448 449 450 451 452 453 454 455 456 457 458 459 460 461 462 463 464 465 466 467 468 469 470 471 472 473 474 475 476 477 478 479 480 481 482 483 484 485 486 487 488 489 490 491 492 493 494 495 496 497 498 499 500 501 502 503 504