Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 1
Author(s): Vanshidhar Vyakaranacharya, Darbarilal Kothiya
Publisher: Lakshmibai Parmarthik Fund Bina MP

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Page 448
________________ शंका-समाधान ३ की समीक्षा (२) भागे लसी पृष्ठपर उत्तरपक्षने जो "पर जोयोंकी दयाका विकल्प तो सम्यग्दृष्टियों यहाँ तक की मुनियोंको भी होता है"--इत्यादि कथन किया है, सो उसे समझना चाहिए या कि परजीवोंको दयाफा विकल्प सम्यग्दृष्टियों और मुनियों का पहले किये गये विवेचनके अनुसार केवल पुण्यभावरूप जीवदयाके रूपमें न होकर ब्यवहारधर्मरूप जीव दयाके रूपमें ही होता है । केवल पुण्यभाष रूप जीवदयाका विकल्प पूक्ति प्रकार संकल्पी पापभूत अश्या प्रवृत्त मि-पाटि जायके है। होचा है । (३) उत्तरपक्षने त० च० १० ११२ पर "अपरपक्षने अपने प्रतिशंका रूप दूसरे पत्रझमें विविध ग्रन्थोंके अनेक प्रमाण दिये है" इत्यादि कथन किया है वह भी उसने केवल पुण्यभावरूप जीवदयापर दृष्टि रखकर ही किया है । यदि यह पक्ष उस प्रकारका कथन करनेसे पूर्व व्यवहारधर्म रूप जीवदयापर दृष्टि डालनेका प्रयत्न करता तो उसे वह सब लिखने की आवश्यकता ही नहीं रह जाती। वहींपर उत्तरपक्षने "अपरपक्ष यदि व्यवहारधर्म और निश्चयधर्म दोनोंको मिलाकर निश्चयधर्म कहना चाहता है"-इत्यादि कथन किया है, सो यह भो उसको दूषित दृष्टिका परिणाम है। वास्तवमें उत्तरपक्षको व्यवहारधर्म और निश्चयधर्मके स्वरूपका निर्धारण करना ही आवश्यक है । इनके निर्धारणमें आगमका दृष्टिकोण यह है कि व्यवहारधर्म तो अशुभमे निवृत्तिपूर्वक शुभमें प्रवृत्तिके रूपमें जीवको क्रियावती शक्तिका परिणाम है और निश्चयधर्म मोहनीय कर्मके यथास्थान यथासम्भव उपशम, क्षय या क्षयोपशम पूर्वक होनेवाला जीवको भाववती शक्तिका परिणाम है। इस विषयको मैंने सामान्य समीक्षा विस्तारमे स्पष्ट किया है। (५) इसके आगे नहींपर उत्तरपक्षने अपने पक्षके समर्थनमें प्रवचनसारको गाथा ९और ११ को भी उपस्थित किया है, तो उनका भी यहाँ कोई उपयोग नहीं है । लगता है कि यह मात्र शुभ भाव और व्यवहारधर्मके अंशरूप शुभभाव इन दोनोंके भेदकों समझने में असमर्थ रहनेके कारण ही एमा कर रहा है। माना कि मात्र शुभ भाव पुष्यबन्धका कारण है, परन्तु अशुभसे निवृत्तिपूर्वक होनेवाला शुभ भाव तो व्यवहारधर्मके रूप में एक अपेक्षासे आस्त्रव और बन्धका भी कारण है और एक अपेक्षासे संवर और निर्जराका भी कारण है। उत्तरपक्षने त च० पु. ११३ पर जो "अपरपक्षने अपने दूसरे पत्रकमें जो आगम प्रमाण दिये है-- इत्यादि कथन किया है उसमें भी उसे मात्र पुण्यभाव और व्यवहारधर्मजप पुण्यभाव इन दोनोंके भेदको समबानेको आवश्यकता है। इसी तरह त च० १० ११३ पर ही उत्तरपक्षने जो यह लिखा है कि "हमने अपने पिलले उत्तरमें जो बह लिखा है कि शभ भाव नाहे दया हो, करुणा हो, जिनबिम्ब दर्शन हो, अन्य कुछ भी क्यों न हो, यदि वह शुभ परिणाम है तो उससे मात्र बन्च ही होता है उससे संवर, निर्जरा और मोक्षको सिद्धि होना असम्भव है" तथा आगे और भी जो कुछ लिखा है वह सब मात्र पुण्यभावको अपेक्षा सो निविवाद है. परन्तु इससे गथक पापभानसे निवत्तिपूर्वक होनेवाला पुण्यभाव व्यवहारधर्मके रूपमें बन्धका कारण होकर भी संवर और निर्जरा पूर्वक मोक्षका भी कारण होता है। इस बातपर भी उत्तरपक्षको ध्यान रखना था। एक बात यह भी विचारणीय है कि यद्यपि पापभाव और पुण्यभाव बन्धके कारण होनेसे समान है, परन्तु दोनोंमें यह भेद भी है कि अहाँ पापभाव दुर्गतिका कारण है वहाँ पुण्यभान्न मुगतिका कारण है। इतना ही नहीं, पुण्य भावमें पापभावसे वह भी विशेषता है कि वह संवर और निर्जरपूर्वक मोक्षक कारणभूत व्यवहारचर्मकी उत्पत्तिमें भी कारण है जैसा कि पूर्वमें स्पष्ट किया जा चुका है।

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