Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 1
Author(s): Vanshidhar Vyakaranacharya, Darbarilal Kothiya
Publisher: Lakshmibai Parmarthik Fund Bina MP

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Page 446
________________ शंका-समाधान ३ की समीक्षा उन संकणी पापोंका सर्वथा त्यागकर अशुमसे निवृत्तिपूर्वफ होने वाली शुभमें प्रवृत्तिरूप ब्यवहारधर्मको अंगीकार कर लेता है जो व्यवहारधर्म कोंके संवर और निर्जरण पूर्वक मोक्षका कारण होता है इस विषयको पूर्वमें विस्तारस स्पष्ट किया गया है। उत्तरपक्षने इस अनुच्छेदके अन्त में जो यह लिखा है कि इसका अर्थ वोतरागभाव यदि लिया जाये तो यह संवर और निर्जरा रूप होनेसे अवश्य ही मोक्षका कारण है ।' सो यह लेख उसने वीतरागभावका अर्थ शुद्ध स्वभावभूत निश्चयवर्मक रूपमें ग्रहण कर लिखा है । इसलिये मिथ्या है, क्योंकि पूर्व में स्पष्ट किया जा चुका है कि शुद्ध स्वभावभूत निश्चयधर्मरूप यह बीतरागभाब कर्मोंके संवर और निर्जरणपूर्वक होनेसे कमौके संबर और निर्जरणका कारण नहीं हो सकता है । इसलिये यदि उत्तरपक्ष वीतरागभावका अर्थ व्यवहारधर्मके अंशभूत पापभूत अशुभ प्रवृत्तिमे निवृत्ति के रूप में स्वीकार कर ले तो उसका उक्त कथन संगत हो सकता है, क्योंकि व्यवहार धर्मके अंशभूत पापभूत अशुभसे निवृत्ति ही कौके संवर और निर्जराका कारण होती है । इसे भी पूर्वमें स्पष्ट किया जा चुका है। (५) पंचम अगुच्छेदमें उत्तरपक्षने लिखा है कि 'यहाँ यह स्पष्ट कर देना आवश्यक है कि आगममें सरागसम्यक्त्वको वा रारागचारित्र आदिको जहाँ बन्धका कारण कहा है वहां उन्हें परम्परा मोक्ष का कारण में कहा है। पर समा ज मा है, हालिये प्रकुतमें उसकी विवक्षा नहीं है। यहाँ तो निर्णय इस बातका करना है कि रागरूप शुभ भाव या पुण्यभाव भी क्या उसी तरह मोक्षका कारण है जिस तरह निश्चयधर्म । इन दोनोंम कुछ अन्तर है या दोनों एक समान है। पूरी चर्चाका केन्द्र बिन्दु यही है । हमने अपने प्रथम और द्वितीय उत्तरमें इसी आशयको स्पष्ट करनेका प्रयत्न किया है।' इसकी समीक्षामें मेरा यह कहना है कि उत्तरपक्ष ने अपने प्रथम और द्वितीय उत्तरमें जो कुछ लिखा है यह सब अपनी इस धारणाके आधारपर लिखा है कि पूर्वपक्ष पुण्यरूप जीवदयाको ही धर्म मानता है जो मिथ्या है, क्योंकि पूर्वपश तो पुण्यरूप जीवदयासे पृथक् जीवके शुद्ध स्वभावभूप्त निश्चयधर्मके लपमें व इसमें कारणभूत व्यवहारधर्मके रूपमें ही जीवदयाको धर्मरूप स्वीकार करता है। अतः इस बातको मैं इसी समीक्षामें विस्तारके साथ स्पष्ट कर चुका हूँ, इसलिये इस अनुच्छेदमें उत्तरपक्षका यह लिखना कि 'यहाँ तो निर्णय इस बातका करना है कि रागरूप शुभ भाव या पुष्यमाव भी क्या उसी तरह मोक्षका कारण है जिस तरह निश्चय रत्नत्रय । इन दोनोंमें कुछ अन्तर है या दोनों एक समान हैं।' निरर्थक और अनुचित सिद्ध हो जाता है। उत्तरपक्षके इस लेवसे ऐसा भी ज्ञात होता है कि वह पुण्यभाव या शुभ भावको मोक्षका कारण तो मानसा है, परन्तु उस तरह नहीं मानता है जिस तरह वह निश्चय रत्नत्रयको मानता है, इसलिये पुण्यभाव या शुभभाव जीवदयाको बह किस तरह मोक्षका कारण मानता है यह बात उसे स्पष्ट करनी थी। यतः उसने इस बातको स्पष्ट नहीं किया, अतः इसमें उसकी दूषित मनोवृत्ति ही कारण जान पड़ती है, क्योंकि इस स्पष्टीकरणसे उसका पक्ष उसीके द्वारा निरस्त हो सकता था। पूर्व पक्ष एक तो पुण्यभाव या शुभ भावरूप जीवदयाको कमों के आस्रव और बन्धका कारण होनेसे मोक्षका कारण मानता ही नहीं है वह तो व्यवहारधर्मरूप जीवदयाको ही आस्रव और बन्धका कारण होने के साथ संवर और निर्जराका भी कारण होनेरी मोनका कारण मानता है। दूसरे, वह जो ज्यभाव या शुभभावरूप जीवदयाको मोक्षका कारण मानता है वह इस तरह मानता है कि पुण्यभाव या शुभभाव रूप जीवदया व्यवहारधर्म रूप जीवदयाकी उत्पत्तिमें कारण होती है । इसलिये वह उसे परम्परया ही मोक्षका कारण मानता है । यह सब विषय इसी समीक्षामें विस्तारके साथ स्पष्ट किया जा चुका है । इस अनुच्छेदमें उत्तरपने जो मह लिखा है कि 'यहाँ यह स्पष्ट

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