Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 1
Author(s): Vanshidhar Vyakaranacharya, Darbarilal Kothiya
Publisher: Lakshmibai Parmarthik Fund Bina MP

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Page 447
________________ २६० जयपुर (खानिया) तत्त्वचर्चा और उसकी समीक्षा कर देना आवश्यक है कि आगममें सराग सम्यक्त्यको या सरागचारित्र आदिको जहां कर्मबन्धका कारण कहा है वहाँ परम्परा मोक्षका भी कारण कहा है।' सो उसका यह कथन तो निर्विवाद है, परन्तु इसके आगे उसने जो यह लिखा है कि उसका आशय दूसरा है। सो अच्छा होता यदि वह उस दूसरे आशयको महाँ स्पष्ट कर देता। इस विषयमें उसने आगे जो केवल यह लिख दिया कि 'प्रकृतमें उसकी विवक्षा नहीं है।' सो इसे उसका उस आशयको स्पष्ट करने की बातको तो टालना ही कहा जा सकता है। लेकिन उसका इस तरह आवश्यक बातको टाल देना उचित नहीं है, क्योंकि सम्भव है उसके द्वारा उस आशयको स्पष्ट कर देनेसे प्रकृत विषयकी समस्याके सुलझनेका मार्ग प्रशस्त हो जाता। तात्पर्य यह है कि जीवकी क्रिमावती शक्तिके परिणमन स्वरूप अशुभसे निवृत्तिपूर्वक होनेवाली शुभमें प्रवृत्तिरूप व्यवहारचारित्रके रूपमें जो सम्पचारित्र है वह शुभ प्रवृत्तिके रूपमें तो बन्धका कारण है और अशुभ प्रवृत्तिसे निवृत्तिके रूपमें परम्परया मोक्षका कारण है। इसे परम्परमा मोक्षका कारण कहनेका आशय यह है कि इस व्यवहारसम्यक चारित्रके आधारपर भव्यजीव क्षयोपशम, विशुद्धि, देशना, प्रायोग्य और करण लब्धियों को अपने विकसित कर लेता है । तथा करण लब्धिका विकास मोहनीय कर्मक यथास्थान यथासंभव उपशम, क्षय या क्षयोपशममें कारण होता है और इसके अनन्तर ही उस जीयमें आत्मविशुद्धिके रूपमें निश्चयमोक्षमार्ग प्रगट होता है। इसी तरह सराम सम्यक्त्व भी उस जीवकी भाववती शक्तिके हृदयके सहारेपर होनेवाले तत्वश्रद्धानरूप परिणमनके रूपमें ज्यबहारसम्यक्त्व है। ऐसे मरागसम्यक्त्व और सरागचारित्र दोनों ही अपने अपने ढंगसे बन्ध और मोक्षके कारण होते है । जो मनीषी मोहनीय कर्मक यथासम्भव उपशम, क्षय या क्षयोपशममें होनेवाले दशम गुणस्थान तकके निश्चयसम्यक्त्व और निश्चयमारित्रको ही सरागसम्यक्त्व और सरागचारित्र कहते हैं वे भ्रममें है, क्योंकि निश्चयसम्यक्त्व और निश्चयचारित्र जिस गुणस्थानमें जिस रूपमें प्रगट होते हैं जीयके शुद्ध स्वभावरूप होनेसे बन्धके का नहीं होते हैं और मोहनीय कर्म के यथासम्भव उपशम, क्षय या क्षयोपशम पूर्वक होनेसे संवर और निर्जराका कार्य होनेसे ने संबर और निर्जराके कारण भी नहीं होते है। इस विषयको तथा व्यवहार या सराग सम्यक्त्व और व्यवहार या सराम चारित्रकी अपने-अपने ढंगकी मोक्ष कारणताको सयुक्तिक इस समीक्षा पहले ही स्पष्ट किया जा चुका है। तृतीय दौरमें निर्दिष्ट उत्तरपक्षके आगेके कथनोंकी समीक्षा उत्तरपक्षने अपने ततीय दौर में आगे "प्रतिर्शका ३ के आधारसे विचार" शीर्षकसे जो विचार व्यक्त किये हैं वे विचार उसने प्रथम और द्वितीय दौरोंके समान पूर्वपक्षके "जीवदयाको धर्मं मानना मिथ्यात्व है क्या? इस प्रश्नको "पण्यरूप जीवदयाको धर्म मानता मिथ्यात्व है क्या?" इस रूपमें ग्रहण करके पुण्यभूत श्याको लक्ष्यमें रखकर ही व्यक्त किये हैं। उसे मैं पहले भी उत्तरपक्षकी "मूल में भूल' कह आया हूँ आगे उसरपक्षके उन विचारोंकी समीक्षा की जाती है (१) उत्तरपक्षने त० च० पृ० १११ पर परमात्मप्रकाश पद्य ७१ को लेकर पूर्वपक्ष की आलोचना की है वह ठीक नहीं, क्योंकि प्रकृतमें यह आलोचना मात्र आस्रव और बन्धमे कारणभूत पुण्यरूप दयाको दृष्टिमें रखकर की है जबकि पूर्वपक्षका कथन आस्रव और बन्धके साथ संवर और निर्जरामें कारणभूत व्यवहारधर्मरूप दयाको लक्ष्यमें रखकर है।

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