Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 1
Author(s): Vanshidhar Vyakaranacharya, Darbarilal Kothiya
Publisher: Lakshmibai Parmarthik Fund Bina MP

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Page 445
________________ २५८ जयपुर (खानिया) तत्वचर्चा और उसकी समीक्षा गया । वे कहां किस अपेक्ष से लिखे गये हैं यह भी नहीं खोला गया । इसलिये हमें अपने दूसरे उत्तर में यह टिप्पणी करने के लिये बाध्य होना पड़ा कि 'ये सब प्रमाण तो लगभग २० ही हैं । यदि पूरे जिनागममेरो ऐसे प्रमाणका संग्रह किया जाये तो स्वतंत्र ग्रन्थ बन जाये ।' इसकी समीक्षामें मेंरा यह कहना है कि पूर्वपक्ष जीवदयाको पुण्यरूप भी मानता है, जीवके शुद्ध स्वभावभूत निश्चयधर्म रूप भी मानता है और निश्चयधर्मरूप जीवदयाकी उत्पत्ति में कारणभुत व्यबहारधर्म रूप भी मानता है तथा अपनी इस माम्मताको पुष्टि के लिये ही उसने उक्त आगमप्रमाणोंको उपस्थित किया है । उनमेंसे कोई प्रमाण जोवकी पुण्यरूपताका समर्थक है। कोई प्रमाण उसकी शुद्ध स्वभावभूत' निश्चयधर्मरूपताका समर्थक है और कोईमाण उनकी दवहारधारूपताका समर्थक है। उत्तरपक्षका भी यही कर्तव्य था कि वह जीवदयाको उन प्रमाणोंके आधारपर पुण्यरूप, जीवके शुद्ध स्वभावभुत निश्चयधर्मरूप और इसमें कारणभूत ज्यवहारधर्मरूप स्वीकार कर लेता। उत्तस्पक्ष ने इस अनुच्छेदमें जो यह लिखा है कि "किन्तु इनमें किस प्रमाणका क्या आशय है यह स्पष्ट नहीं किया गया । वे कहाँ किस अपेक्षासे लिखे गये है यह भी नहीं खोला गया इसके सम्बन्ध में पहली बात तो यह कहना चाहता है कि पूर्वपक्षने इन बातोंपर इसलिये ध्यान नहीं दिया कि उसने प्रकुलमें इन बातोंको स्पष्ट करनेकी कोई आवश्यकता नहीं समझी, क्योंकि उसके सामने प्रश्न केवल जीवदयाके उपयुक्त तीन भेदोकी पुष्टि करनेका था । दूसरी बात यह कहना चाहता हूँ कि यदि उत्तरपक्ष इन बातोंको स्पष्ट करने की आवश्यकता समझता था, तो अच्छा होता कि इन बातोंको यही प्रदनके रूपमें उपस्थित न करके वह स्वयं ही स्पष्ट कर देता । तीसरी बात मैं यह कहना चाहता है कि द्वितीय दौरकी समीक्षामें मैंने इन बातोंका स्पष्टीकरण कर दिया है इसलिये अब यहाँ मेरे लिए भी इनको स्पष्ट करना आवश्यक नहीं रह गया है | उत्तरपक्षने इस अनुच्छेदके अन्तमें जो यह लिखा है कि 'इसलिये हमें अपने दूसरे उत्तरमें यह टिप्पणी करने के लिए बाध्य होना पड़ा कि ये सब प्रमाण तो लगभग २५ ही है यदि पूरे जिनागममेसे ऐसे प्रमाणोंका संग्रह किया जाये तो स्वतंत्र ग्रन्थ बन जामे ।' सो उसके इस लेखके विषयमें तो कोई आपत्ति नहीं है, तथापि उत्तरपक्ष यदि टिप्पणी करनेसे पूर्व प्रश्नके विषय में इन आगम प्रमाणोंको उपस्थित करने में पूर्वपक्ष के आशयको समझनेकी चेष्टा कर लेता तो अच्छा रहता । परन्तु जब उसरपक्षने प्रश्नके विषय में पूर्वपक्ष के आशयको नहीं समझकर और प्रश्नको विपरीत दिशामें मोड़कर पहले से ही मूलमें भूल कर दी है तो फिर उससे इसके अतिरिक्त और क्या आशा की जा सकती थी। (४) चतुर्थ अनुच्छेदमें उत्तरपक्षने लिखा है कि 'फिर भी उन प्रमाणोंको ध्यान में रखकर हमने दूसरे उत्तरमें यह स्पष्टीकरण कर दिया कि पुण्य (शुभ राग) भाव रूप जो दया है वह तो मोक्षका कारण नहीं है । हाँ, इसका अर्थ वीतरागभाव यदि लिया जाये तो वह संबर और निर्जरा रूप होनेसे अवश्य ही मोक्षका कारण है।' इसकी समीक्षामें मेरा यह कहना है कि उत्तरपक्षने इस अनुच्छेदमें जो यह लिखा है कि 'इन . प्रमाणोंको ध्यान में रखकर हमने अपने दूसरे उत्तरमें यह स्पष्टीकरण कर दिया कि पुण्य (शुभ राग) भाव रूप जो दया है वह तो मोक्षका कारण नहीं है ।' सो यह भी उसने प्रश्नके विषयमें पूर्वपक्षके आशयको नहीं समझ सकनेके कारण लिखा है, क्योंकि पूर्वपक्ष पुण्य (शुभराग) भावरूप दयाको मोक्ष का कारण मानता ही नहीं हैं और मानता भी है तो परम्परया इस रूपमें मानता है कि पुष्यरूप जीवदया जीव. संकल्पी पापोंसे घृणा उत्पन्न होनेमें कारण होती है और जीवमें जब संकल्पी पापोंसे घृणा उत्पन्न हो जाती है तो वह जीव

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