Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 1
Author(s): Vanshidhar Vyakaranacharya, Darbarilal Kothiya
Publisher: Lakshmibai Parmarthik Fund Bina MP

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Page 443
________________ २५६ जयपुर (खानिया) तत्त्वचर्चा और उसकी समीक्षा जयधवल, राजबार्तिक, भावपाहुड, भावसंग्रह, स्वामी कार्तिकेयानुप्रेक्षा आदिके लगभग २० प्रमाण देकर निम्न लिखित दो बातें सिद्ध की थीं (१) जीवनया करना धर्म है। (२) पुण्यभाव धर्मरूप है । पुण्यभाव या शुभ भावोंसे संवर निर्जरा तथा पुण्यकर्म-बन्ध होता है।" पूर्वपक्षके इस कथनका अभिप्राय यह है कि आगममें पुण्यरूप जीवदमासे पृथक् व्यवहारधर्मरूप जीवदयाको भी मान्य किया गया है जो व्यवहारधर्मरूप जीवदया जीवकी अदयारूप अशुभ प्रवृत्तिसे निवृत्तिपूर्वक याभूत शुभ प्रवृत्तिरूप होती है। इस अभिप्रायकी पुष्टि पूर्वपक्षके हो त० ० पृ० १०३ पर निर्दिष्ट निम्न कथन से होती है ___ "आगने रागभावको केन्द्र बनाकर पुण्यभावों या शुभभावोंको केवल कर्मबन्धके साथ बांधनेका प्रयत्न किया है । यह शुभभावोंको अवान्तर परिणतियोंपर दृष्टि न जानेका फल जान पड़ता है। इतनी बात तो अवश्य है कि दसवें गुणस्थान तक रागभान लघु, लघुतर, लघुतमरूपसे पाया जाता है और वह भी सत्य है कि रागभावसे कर्मोका आस्रव तथा बन्ध हुआ करता है। तथा च अमृतचन्द्र सूरिने जो असंयत सम्यग्दृष्टि, संयमासंयमी एवं सरागसंयतके मिश्रित भावोंको अपनी प्रज्ञा छैनीसे भिन्न-भिन्न करते हुए रागांश और रत्नषयांश द्वारा कमरों के बन्धन और अबन्धनकी सुन्दर व्यवस्था पुरुषार्थसिद्धुपायग्रन्थके तीन श्लोकोंमें की है उनमें एक अखण्डित मिश्रितभाक्का विश्लेषण समझानेके लिए प्रयत्न किया गया है। यह मिश्रित अखण्डभाब ही शुभ भाव है, अतः इससे आस वचन्ध भी होता है तथा संवर निर्जरा भी होता है।" ____ इस कथनके अतिरिक्त पूर्वपक्षद्वारा आगम प्रमाणोंके आधारपर आगे किये गये अन्य कथनोरो भी यही निर्णीत होता है कि पूर्वपक्ष जीबदयाको मात्र शुभ प्रवृत्ति के रूपमें पुण्यरूप भी मानता है जो केवल कर्मोके आम्रव और बन्धका ही कारण होती है तथा वह उसे जीवके शुद्ध स्वभावभूत निश्चयधर्मरूप भी मानता है जो मोहनीयकर्मकी क्रोधप्रकृतियोंके यथासम्भव उपशम, क्षय या क्षयोपशमपूर्वक जीयम प्रगट होती है। तथा जो न तो कमोंके आस्रव और बन्धका कारण होती है और न ही कोक संवर और निर्जरणका कारण होती है। एवं इन दोनों के अतिरिक्त वह उसे व्यवहारधर्मरूप भी मानता है जो तत्-तत पापमय प्रवृत्तिसे यथायोग्य निवृत्तिरूप होनेसे रलावांशके रूपमें कोंके संबर और निर्जरणका भी कारण होती है तथा पुण्यमय शुभ प्रवृतिरूप होनेरो रागांशके रूपमें कर्मोके आसव और बन्धका भी कारण होती है। इस तरह यह ज्यवहारधर्मरूप' जीवदया रत्नत्रयांश के रूपमें जीवके शुद्धस्वभावभुत निश्चयधर्मरूप जीबदयाकी उत्पत्तिमें कारण भी सिद्ध हो जाती है। यह सब विषय सामान्य समीक्षामें विस्तारसे स्पष्ट किया जा चुका है! तृतीय दौरमें उत्तरपक्षका प्रारंभिक कथन और उसकी समीक्षा उत्तरपक्षने अपने तृतीय दौरफे प्रारम्भमें "प्रथम और वितीय प्रश्नोत्तरोंका उपसंहार" शीर्षकसे त. च० पृ० ११० और १११ पर पांच अनुच्छेद लिखे हैं। उनमेंसे प्रत्येक अनुच्छेदको उद्धृत कर उसकी समीक्षा की जाती है (१) प्रथम अनुच्छेदमें उत्तरपक्षने लिखा है कि 'जीवदयापदफे स्वदया और परवया दोनों अर्थ सम्भव है। किन्तु प्रकृतमें मूल प्रश्न परदयाको ध्यानमें रखकर ही है, इस बातको ध्यानमें रखकर हमने प्रथम उत्तरमें

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