Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 1
Author(s): Vanshidhar Vyakaranacharya, Darbarilal Kothiya
Publisher: Lakshmibai Parmarthik Fund Bina MP
View full book text
________________
२५४
जयपुर (खानिया) तत्त्वचर्चा और उसकी समीक्षा दृष्टि होता है यह सम्यग्दृष्टि नहीं होता ।" इसके आगे अपने उक्त अभिप्रायकी पुष्टि के लिए त. च. पृ० १०० पर उसमे समयसारगाथा १२१ और २०० को भी उपस्थित किया है तथा इसके भी आगे अपने पक्षके समर्थनमें उसने चेतनाके ज्ञानचेतना, कर्मचेतना और कर्मफल चेतनाके रूपमें तीन भेदोंका भी कथन किया है सो इनका भी पूर्वपक्षकी मान्यतापर उपर्युक्त प्रकार प्रतिकूल प्रभाव नहीं पड़ता है अर्थात् उत्तरपक्षका यह सब कथन प्रकृतमें पुण्यभाव रूपजीवदयाको लक्ष्यमें रखकर है जब कि पूर्वपक्षका विवेचन पुण्यभावरूप जीवदयासे पृथक व्यवहारधर्मरूप जीवदयाको लक्ष्यमें रखकर है।
आगं उत्तरपक्षने अपने द्वितीय दीरमें त. घ. १० १०० पर ही यह कथन किया है कि "यदि प्रकृतमें दयासे वीतराग परिणाम स्वीकार किया जाता है और इसके फलस्वरूप जिन उल्लेखोंके आश्रयसे प्रतिशंका दोमें दयाको कर्मक्षपणा या मोक्षका कारण कहा है तो उसे उस रूप स्वीकार करने में तत्त्वकी कोई होती, क्योंकि रामपरिणाम मात्र बन्धका ही कारण है, फिर भले ही वह दसवें गुणस्थानका सुक्ष्मसाम्पराय रामपरिणाम हो क्यों न हो और वीतरागभाव एकमात्र कर्मक्षपणाका ही हेतु है फिर भले ही वह अविरत सम्यग्दष्टिका वीतराग परिणाम ही क्यों न हो।"
उत्तरपक्षके इस कथनसे यह सूचित होता है कि वह भी पूर्वपक्ष के समान पुण्यभूत जीवदयासे पृथक् वीतराग परिणतिके रूपमें धर्मरूप जीवदयाको मान्य करने के लिए तैयार है। इसलिये उसे यह भी ज्ञात होना चाहिए था कि पूर्वपक्षने प्रकृतमें पुण्यभावरूप जीवदयासे पथक इसी दीतराग परिणतिरूप जीवदयाको धर्मरूप से ग्रहण किया है । इतना अवा किम ताहत्तरपका अपने प्रथम पोरके उत्तरवचनमें यह लिखना कि ''यदि इस प्रश्नमें धर्मपदका अर्थ वीतरागपरिणति लिया जाये तो जीवदयाको धर्म मानना मिथ्यात्व है।" अगंगत सिद्ध हो जाता है। इसपर उत्तरपक्ष यदि यह कहना चाहे कि उसने तो अपने प्रथम दौर में पुण्यभावरूप जीवदयाको धर्म मानने की बातको मिथ्यात्व कहा है, वीतरामपरिणतिरूप जीवदयाको नहीं, तो जसे इस बातका स्पष्टीकरण प्रथम दोरमें ही कर देना चाहिए था, क्योंकि पूर्वपक्षने अपने प्रश्नमें जीवदयापदका ही पाठ किया है, पुण्यभावरूप जीवदयापदका पाठ नहीं किया है जिसका तात्पर्य यही है कि जिस प्रकार जीवदयाको पुण्य मानना मिथ्यास्व नहीं है इसी ऽकार जीवदयाको धर्म मानना भी मिथ्यात्व नहीं है। इस तरह पूर्वपक्षको उत्तरपक्षके प्रथम उत्तरसे ही वह बात समझमें आ जाती कि उत्तरपक्ष जीनदयाको पुण्यभाषरूप जीवदयासे पृथक् वीतरागपरिणति के रूपमें धर्मरूप जीवदयाको भी मान्य करता है । तब दोनों पक्षोंके मध्य विवाद केवल व्यवहारधर्मरूप जीवदयाको मानने न माननेके विषयमें ही रह जाता । इसका यह सुफल होता कि प्रकृत प्रबमके सम्बन्ध में उसे जो अनावश्यक प्रयास करना पड़ा वह उसे नहीं करना पड़ता तथा पूर्वपक्ष भी कुछ तो अनावश्यक प्रयाससे बच जाता।
यहां एक बात अवश्य विचारणीय है कि उत्तरपक्षने पुण्यभूत जीवदयासे पृथक वीतरागपरिणतिरूप जीवदयाको तो मान्य कर लिया है, परन्तु इस वीतरामपरिणतिरूप जीवदयाके दो भेद है-एक तो अनन्तानुअन्धी आदि चारों कषायोंकी क्रोष प्रकृतियोंके यथायोग्य उपशम, शव या क्षयोपशममें होनेवाली जीवकी भाववती शक्तिके परिणममस्वरूप वीतराग परिणतिरूप जीवदया और दूसरी जीवकी क्रियावती शक्ति के परिणमनस्वरूप मानसिक, वाचनिक और कायिक अदयारूप अशुभ प्रवृत्तियोंसे मनोगुप्ति, वचनगुप्ति और कायगुप्तिके रूपमें निवृत्तिरूप वीतराग परिणतिरूप जीवदया। इन दोनोंमेंसे जीवकी भाववती शक्तिके परिणमन स्वरूप वीतरागपरिणतिरूप जीवदयाका अन्तर्भाव तो पारस्वभाषभूत मिश्चर्पधर्ममें होता है और जीयको