Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 1
Author(s): Vanshidhar Vyakaranacharya, Darbarilal Kothiya
Publisher: Lakshmibai Parmarthik Fund Bina MP
View full book text
________________
शंका-समाधान ३ की समीक्षा
२५३
कदापि नहीं कहता । अतः उसका प्रश्न पुण्यभावरूप जीवदयाको धर्म माननकी दृष्टि से नहीं है, अपितृ इस दृष्टिसे है कि जीवदयाका एक प्रकार जिस तरह पुण्यरूप है उसी तरह दूसरा प्रकार जीवके शुद्ध स्वभावभूत निश्चयधर्मसप भी है और तीसरा प्रकार उस निश्चयवर्मरूप जीवदयाकी उत्पत्तिमें कारणभूत व्यवहारधर्मरूप भी है । पूर्वपक्षाने अपने द्वितीय और तृतीय दौरोंम जितना विवेचन किया है वह इसी दृष्टिसे किया है।
जीवदयाके सम्बन्ध में किये गये इस स्पष्टीकरणसे यह बात अच्छी तरह निर्णीत हो जाती है कि पुरुषार्थसिद्धय पायके पद २१२, २१३ और २१४ प्रकृत विषयमें पूर्व पक्षकी दृष्टिका ही समर्थन करते है । अर्थात् व्यवहारधर्मरुप जोवदयामें जितना अंग अदयारूप अशुभ प्रवृत्तिसे निवृत्ति का है वही कर्मोक संवर
और निर्जरणका कारण होकर मोक्षका कारण होता है और उसमें जितना अंदा दयारूप शुभ प्रवृत्तिका है वह तो कोके आनच और बन्धका ही कारण होता है। इसी तरह पुरुषार्थ सिद्धपायके पद्य २१६ में यही बतलाया गया है कि जीवकी भाववती शक्तिका हृदयके सहारेपर होनेवाला आत्मश्रद्धानरूप व्यवहार सम्यग्दर्शन, मस्तिष्कके सहारेपर होनेवाला आत्मज्ञानरूप ज्यवहारसम्पम्ज्ञान व जीवकी क्रियावती शक्तिका मानसिक, वाचनिक और कायिक प्रवृत्तिरूप क्रियासे मनोगुप्ति, बचनगुप्ति और कायगुप्तिके रूपमें निवृत्तिरूप आत्मस्थिति जिसे व्यवहारसम्पकमारित्र कहना गलत है इन सबरो काँका बन्य नहीं होता है सो यह भी पूर्वपक्षकी प्रकृत विषय सम्बन्धी उपर्युक्त मान्यताके विरुद्ध नहीं है। यदि पुरुषार्थसिद्धयुपायके पद्य २१२, २१३ और २१४ का तथा २१६ का सम्बन्ध निश्चयसम्पग्दर्शन, निश्चयसम्यग्ज्ञान और निश्चयसम्यकचारिवसे जोड़ा जाये तो यह उचित नहीं है, क्योंकि न तो मोहनीयकर्मके उदयमें होनेवाली मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्ररूप विभाव परिणति वमोंके आसप और बन्धका कारण होती है और न ही मोहनीयक के उपशम, क्षय या क्षयोपशयमें होनेवाली सम्यग्दर्शन, सम्यम्मान और सम्यकचारित्र रूप स्वभाव परिणति कर्मोंके संबर और निर्जरणका कारण होती है। यह बात सामान्य समीक्षा-प्रकरणमें स्पष्ट को चा चुकी है।
इसी प्रकार समयसार गाथा १५० और उसकी आचार्य अमतचन्द्र कृत टीकासे भी पूर्वपक्षकी इष्टिका विरोध नहीं होता है, क्योंकि आगममें स्पष्ट कथन है कि व्यवहारसम्यग्दर्शन, व्यवहारसम्यग्जान और प्रवृत्ति निवृत्तिरूप व्यवहारसम्यक्रचारित कर्मोंके संवर और निर्जरणके कारण होते हैं व व्यवहारमिथ्यादर्शन, व्यवहारमिथ्याग्ज्ञान और प्रवृत्तिरूप व्यवहार मिथ्याचारित्र कमौके आरव और बन्धके कारण होते है । (देखो, रत्नकरण्डवादकाचार पद्य ३)।
__इस तरह इन प्रमाणोंके आधारपर प्रकृत विषयक सम्बन्धमें उत्तरपक्षने जो निष्कर्ष निकाला है वह भी पूर्वपक्षकी दृष्टिके विरुद्ध नहीं है। विरोध तो उत्तरपनको इसलिये मालूम पड़ता है कि यह पक्ष जो पूर्वपक्षका विरोध कर रहा है वह विरोध पुण्यभावरूप जीवदयाको लक्ष्यमें रखकर कर रहा है जबकि पूर्वपक्षका विवेचन पुण्यभावरूप जीवदयासे पृथक् व्यवहारधर्मरूप जीवदयाको लक्ष्यमें रखकर है।
उत्तरपक्षने अपने द्वितीय दोरमें आगे तक च० ए० ९९ पर यह कथन किया है-"श्री समयसारजी में सम्यग्दृष्टिको जो अबन्धका कहा है इसका यह अर्थ नहीं कि उसके बन्धका सर्धभा प्रतिषेध किया है । उसका तो मात्र यही अर्थ है कि सम्यग्दृष्टिको रागभावका स्वामित्व न होनेसे उसे अबन्धक कहा है, क्योंकि सम्यग्दृष्टि और रागदृष्टिमें बड़ा अन्तर है । जो सम्यग्दृष्टि होता है वह रागदृष्टि नहीं होता और ओ राग