Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 1
Author(s): Vanshidhar Vyakaranacharya, Darbarilal Kothiya
Publisher: Lakshmibai Parmarthik Fund Bina MP
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का-समापार की समीक्षा
२५१
कारणभूत व्यवहार धर्मरूपताको स्वीकृति करते हुए इस बातको सिद्ध करनेका प्रयल किया है कि जीवदयाको धर्म मानना मिथ्यात्व नहीं है। द्वितीय दौरमें उत्तरपक्षका प्रारम्भिक कथन और उसकी समीक्षा
उत्तरपक्षने प्रकृत प्रश्नोत्तर सम्बन्धी अपने द्वितीय दौरके प्रथम अनुढेदमें यह कथन किया है"उक्त शंकाका जो उत्तर दिया गया था उसपर प्रतिशंका करते हए लगभग २० शास्त्रोंके प्रमाण उपस्थित कर यह सिद्ध करने की चेष्टा की गई है कि जीवदयाको धर्म मानना मिथ्यात्त नहीं है। इसमें सन्देह नहीं कि इनमें कुछ ऐसे भी प्रमाण है जिनमें संवरके कारणोंमें दयाका अन्तर्भाव हुआ है। जयधबलाका एक ऐसा भी प्रमाण है जिसमें शुद्ध भावके साथ शुभ भावको भी कर्मक्षयका कारण कहा है। श्री धवलाजीके एक प्रमाणमें यह भी बतलाया है कि जिनबिम्बदर्शनसे निपत्ति-निकाचित बन्धकी व्युच्छित्ति होती हैं। इसी प्रकार भावसंग्रहमें यह भी कहा है कि जिनपूजासे कर्मक्षय होता है। ऐसे ही यहाँ जो अनेक प्रमाण संग्रह किये गये है उनका विविध प्रयोजन बतलाकर उन द्वारा पर्यायान्तरसे दयाको पुण्य और धर्म भयरूप सिद्ध किया गया है। ये सब प्रमाण तो लगभग २० ही है। यदि पूरे जिनागमसे ऐसे प्रमाणोंका संग्रह किया जाये तो एक स्वतन्त्र विशाल ग्रन्थ बन जाये। पर इन सब प्रमाणोंके आधारसे क्या पुण्यभावरूप जीवदयाको इतने मात्रसे मोक्षका कारण माना जा सकता है।" आगे इसकी समीक्षा की जाती है
(१) उसरपक्षके इस वचनसे इतना तो निश्चित हो जाता है कि वह भी इस बात को स्वीकार करता है कि आगममें पुण्यभावरूप जिनबिम्बदर्शन, जिनपूजा और जीवदया आदिको कर्मक्षय या मोक्षका कारण प्रतिपादित किया गया है। परन्तु ऐसा प्रतिपादन आगम में क्यों किया गया है इसपर उपयोगी होते हुए भी उसने विचार करनेकी आवश्यकता नहीं समझी है। वास्तवमें आगममें ऐसा प्रतिपादन इसलिये किया गया है कि पुण्यभावरूप जिन बिम्बदर्शन, जिनपूजा और जीवदया भादि प्रवृत्तियोंके आधारसे जीवमें संकल्पीपापमय अशुभ प्रवृत्तियोंके प्रति घृणा उत्पन्न होती है जिसके बलसे जीव संफरुपी पापमय अशुभ प्रवृत्तियों का सर्वथा त्याग कर कर्मों के संघर और निर्जरणमें कारणभूत व्यवहारधर्मपर आरूढ़ हो जाता है। इस तरह पुण्यभावरूप वे जिनबिम्बदर्शन, जिनपूजा और जीवदया आदि शुभ प्रवृत्तियां भी परम्परया कर्मक्षय या मोक्षका कारण सिञ्च हो जाती है। परन्तु इतना होनेपर भी उत्तरपक्षको यह ज्ञात होना चाहिए था कि पूर्वपक्षका प्रश्न पुण्यभावरूप जीवदयाको धर्म मानने की बातको लक्ष्य में रखकर नहीं है, अपितु इस बातको लक्ष्य में रखकर है कि आगममें जिस प्रकार जीवदयाको पुण्यभाव रूप माम्म किया गया है उसी प्रकार उसे यहाँ शुद्ध स्वभावभूत निश्चयधमके रूपमें और इसमें कारणभूत ब्यवहारधर्मके लपमें धर्मरूप भी मान्म किया गया है, अतः जीवदयाको जिस प्रकार पुण्यभाष मानना मिथ्यात्व नहीं है उसी प्रकार उसे धर्म मानना भी मिथ्यात्व नहीं है। उत्तरपश्चको आगमके अनुकूल पूर्वपक्षके इस आशयको समझकर प्रश्नका उत्तर देनेका प्रयत्न करना चाहिए था। उसने पूर्वपक्षके इस आशयको समझनेकी पेष्टातो की नहीं, प्रत्युत विपरीत आशय ग्रहणवार इस तरह प्रश्नका उत्तर देने का प्रयत्न किया मानों! पूर्वपक्ष पुण्यभावरूप जीवदयाको ही धर्म मानता हो। यह बात उत्तरपक्षक अपयुक्त अनुच्छेदके "पर इन सब प्रमाणोंके आधारसे क्या पुषयभाष रूप जीवदयाको इतने मात्रसे मोक्षका कारण माना जा सकता है?" इस अंशसे ज्ञात होती है। परन्तु उत्तरपक्ष द्वारा पूर्वपक्षके विषय में इस प्रकारको मिथ्याष्टि बनाकर प्रश्नका उत्तर देना उचित नहीं है।
(२) उत्तरपक्षके उक्त कथनसे यह भी निश्चित होता है कि वह पक्ष इस बातको भी स्वीकार