Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 1
Author(s): Vanshidhar Vyakaranacharya, Darbarilal Kothiya
Publisher: Lakshmibai Parmarthik Fund Bina MP

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Page 444
________________ २५७ शंका-समाधान ३ की समीक्षा यह स्पष्टीकरण किया कि यदि धर्मपदका अर्थ पुण्यभाव लिया जाये तो जीवदयाको पुण्य मानना मिथ्यात्व नहीं है । इस उसरमें आगम प्रमाण भी इस अर्थकी पुष्टिमें दिये।' इसकी समीक्षामें मेरा यह कहना है कि उत्तरपक्षने इस अनुच्छेदमें "जीवदया" पदके स्वदया और परदयाके रूपमें जो दो भेद मान्य किये हैं, उनमें विवाद नहीं है। परन्तु उसने वहींपर जो यह लिखा है कि "प्रकृतमें मूल प्रश्न परदयाको ध्यानमें रखकर ही है' सो उसका यह लिखना मिथ्या है, क्योंकि पूर्वपक्षका प्रश्न परदया अर्थात् पुष्पभावरूप जीवदयाको ध्यानमें रखकर नहीं है, अपितु सामान्य रूपसे जीवदयाको ध्यानमें रखकर ही है. क्योंकि पूर्वपक्ष अपमे प्रश्नमें उत्तरपक्षसे मात्र इतना पूछ रहा है कि जीवदयाको धर्म मानना मिथ्यात्व है क्या? पुण्यभावरूप जीवदयाको धर्म मानना भय्यावया ? यह नहीं पूछ रहा है और ऐसा न पूछनेका कारण यह है कि उत्तरपत्रके समान पूर्वपक्ष भी पुण्यभावरूप जीपदयाको धर्म नहीं मानता है। यह बात प्रथम दौरकी समीक्षा स्पष्ट की जा चुकी है। यतः पूर्वपक्ष समझता था कि उत्तरपक्ष जीपदयाको धर्मरूप नहीं मानना चाहता है अतएव उसने प्रकृत प्रश्न प्रस्तुत किया था। यद्यपि उत्तरपक्षाने अपने द्वितीय दौरमें और इस तृतीय दौरमें जीवदयाको वीतराग परिणतिके रूपमें जीवके शुद्ध स्वभावभूत निश्चयधर्म भी स्वीकार कर लिया है, परन्तु वह इस निश्चयधर्मरूप जीवदयाकी उत्पत्तिमें कारणभत व्यवहारधर्मरूप जीवदनाको अभी भी भानने के लिए तैयार नहीं है। (२) द्वितीय अनुच्छेदमें उत्तरपक्षने लिखा है कि "अपरपनने अपनी प्रथम प्रतिशंकामें एक अपेक्षासे हमारे उक्त कथनको तो स्वीकार कर लिया किन्तु साथमें आगमके लगभग २० प्रमाण उपस्थित कर यह भी सिद्ध करने का प्रयत्न किया कि जीवदयाका संवर और निर्जरा तत्वमें भो अन्तर्भाव होता है, इसलिये वह मोक्षका भी कारण है।" इसकी समीक्षामें मेरा यह कहना है कि उत्तरपक्षका इस अनुच्छेदमें "अपर पक्षने अपनी प्रथम प्रतिशंका एक अपेक्षासे हमारे उक्त कथनको स्वीकार कर लिया' यह लिखना भ्रामक है, क्योंकि पूर्वपक्षका उत्तरपक्षके साथ जीवदयाके पुण्यभाव रूप होने और उसका आस्रव व बन्ध तत्त्वमें अन्तर्भाव होने के सम्बन्धमें विवाद न होकर केवल उसे धर्मरूप माननेके विषयमें ही विवाद था, इसीलिये पूर्वपक्षने अपने द्वितीय दौरमें 'इस प्रश्नके उत्तरमें आपने जीवदयाको धर्म मानते हुए उसको शुभ परिणामोंमें परिगणना की है यह एक अपेक्षासे ठीक होते हुए भी' यह कथन किया है। उत्तरपक्षने इस अनुच्छेदमें पूर्वपक्षके कथनके रूपमें जो यह लिखा है कि "किन्तु साथमें आगमके लगभग २० प्रमाण उपस्थित कर यह भी सिद्ध करनेका प्रयत्न किया कि जीवदयाका संवर और निर्जरा तत्त्वमें भी अन्तर्भाव होता है इसलिये वह मोक्षका भी कारण है ?" सो ऐसा प्रयत्न पूर्वपक्षने पुष्पभूत जीवदयासे भिन्न व्यवहारधर्मरूप जीवदयाको लक्ष्यमें रखकर हो किया है, क्योंकि आगमके आधारपर वह व्यवहारधर्मरूप जीवदयाको संवर और निर्जराका कारण मानकर मोक्षका भी कारण मानता है। इस बातको उसने अपने द्वितीय और तृतीय दौरोंमें स्पष्ट भी किया है तथा इस समीक्षामें मैंने भी स्पष्ट किया है। (३) तृतीय अनुच्छेदमें उत्तरपक्षने लिखा है कि 'अपरपक्षने जो प्रमाण उपस्थित किये उनमें कुछ ऐसे भी प्रमाण हैं जिनमें धर्मको दया प्रधान कहा गया है या करुणाको जीवका स्वभाव कहा गया है या शुभ और शुद्ध भावोंसे कमौकी क्षपणा कही गई है और साथ ही ऐसे प्रमाण भी उपस्थित किये जिनमें स्पष्ट रूपसे रागरूप पुण्यभावकी सूचना है। किन्तु इनमेंसे किस प्रमाणका क्या आशय है यह स्पष्ट नहीं किया स-३३

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