Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 1
Author(s): Vanshidhar Vyakaranacharya, Darbarilal Kothiya
Publisher: Lakshmibai Parmarthik Fund Bina MP

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Page 442
________________ शंका-समाधान ३ की समीक्षा क्रियावती शक्तिके परिणमनस्वरूप वीतरागपरिणतिरूप जीवक्ष्याका अन्तर्भाव पूर्वोक्त प्रकार व्यवहारधर्म होता है। इनमेंसे पहली निश्चयधर्मरूप जीवदयाको तो उत्तरपक्ष ने अपने उपर्युक्त वक्तव्य में स्वीकार कर लिया है, परन्तु दूसरी व्यवहारधर्मरूप जीवदयाको वह अभी भी मान्य करने के लिए तैयार नहीं है । इमलिए इसके विषयमें दोनों पक्षोंके मध्य अभी भी विवाद बना हआ है । इसके अतिरिक्त उत्तरपक्षके सामने यह समस्या बनी हुई है कि जिस प्रकार पुण्यभूत जीवदया शुभ प्रवृतिरूप होनेसे कर्मोंके संबर और निर्जरणका कारण न होकर उनके आरव और बन्धका ही कारण होती है उसी प्रकार निश्चयधर्मरूप जीवदया यद्यपि जीवके शुद्ध स्वभावभूत होनेसे कर्मों के बालव और बन्धका कारण नहीं होती है । परन्तु वह कर्मोके संवर और निर्जरणका भी तो कारण नहीं होती है, क्योंकि उसकी उत्पत्ति कोंके संवर और निर्जरणपूर्वक होती है। इसलिए दयारूप शुभ प्रवृत्तिरूपताके आधारपर कर्मोक आस्रव और श्वध्धका कारण होते हुए भी अदयारूप अशुभ प्रवृत्तिसे निवृत्ति रूपताके आधारपर और अन्तमें दयारूप शुभ प्रवृत्तिसे भी निवृत्तिरूपताके आधारपर कर्मोके संवर और निर्जरणको कारणभूत व्यवहारधर्मरूप दयाको मान्य करना भी उत्तरपक्षको अनिवार्य है। यहाँ दूसरी बात यह भी विचारणीय है कि उत्तरपक्षने अपने उपर्युक्त वक्तव्यमें जो यह लिखा है कि "वीतरागभाव एकमात्र कर्मक्षपणाका हो हेतु है' सा उसने यह याद जीवको भाववती शक्ति के परिणमनस्वरूप वीतरागभावको लक्ष्यमें रखकर लिखा है तो अयुक्त है, क्योकि ऊपर स्पष्ट किया जा चुका है कि ऐसा वीतरागभाव जब कर्मक्षपणापूर्वक ही प्रगट होता है तो उसे स्वयं कर्मक्षपणाका कारण नहीं माना जा सकता है। इसलिए यहाँ जीवकी क्रियावतो शक्तिले परिणमनस्वरूप वीतरागभाव ही ग्रहण करने योग्य है । फलतः कर्मक्षपणामें कारणभूत भावहारधर्मभूत जीवदयाकी स्वीकृति उत्तरपक्षको न चाहते हुए भी मानना पड़ती है। यह विषय पूर्वमें स्पष्ट किया जा चुका है। __अन्तमें तः च० पु. १०० पर ही उत्तरपक्षने अपने पक्षके समर्थन में जो समयसार कलश १०६ और १०७ को प्रस्तुत किया है सो उसका आशय यही है कि जीवकी भाववती शक्तिका स्वभावभूत ज्ञानस्वरूप परिणमन होना ही मोक्षका हेतु है । परन्तु इसका पन्नु स्वभावभूत ज्ञानस्वरूप परिणमन मथायोग्य कर्मको क्षपणापूर्वक ही होता है और क्षपणा तब तक प्रारम्भ नहीं होती जब तक जीवकी क्रियावतीशक्तिका मानसिक वाचनिक और कायिक अशुभ प्रवृत्तिसे मनोगुप्ति, वचनगुप्ति और कायगुप्तिके रूपमें निवृत्तिरूप परिणमन नहीं होने लगता है । तात्पर्य यह है कि जीवको क्रियावती शक्तिका शुभ प्रवृत्तिरूप परिणमन तो आसवपूर्वक बन्धका कारण होता है और उसका अशुभसे निवृत्तिका परिणमन संवरपूर्वक निर्जरणका कारण होता है। जीवकी भाववती शक्तिका न तो अशुद्ध परिणन आस्रव और बन्धका कारण होता है और न ही उसका शुद्ध परिणमन संवर और निर्जराका कारण होता है । इसका स्पष्टीकरण सामान्य समीक्षामें किया जा चुका है। ४. प्रश्नोत्तर ३ के तृतीय दौरकी समीक्षा तृतीय दौर में पूर्वपक्षकी स्थिति पूर्वपक्षने अपने तृतीय दौरले प्रारम्भमें व० च पृ० १०१ पर उत्तरपक्षके प्रयम और द्वितीय दौरोंकी आलोचना करते हुए निम्न कथन किया है-- "आपके इस उत्तरके निराकरणमें हमने आपको दूसरा पत्रक दिया जिसमें श्री आचार्य कुन्दन्द, बीरसेन, अकलंक, देवसेन, स्वामी कार्तिकेय आदि ऋषियोंके द्वारा प्रणीत प्रामाणिक आर्ष ग्रन्थों-बदल,

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