Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 1
Author(s): Vanshidhar Vyakaranacharya, Darbarilal Kothiya
Publisher: Lakshmibai Parmarthik Fund Bina MP
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शंका-समाधान ३ की समीक्षा
" करुणाए जीवसहावस्स कम्मजणिदत्तविरोहादो"
अर्थ --- करुणा जीवका स्वभाव है अतः इसके कर्मजनित होने का विरोध है । यद्यपि त्रास नमें जीवदयाको जीवका स्वतःसिद्ध स्वभाव बतलाया है, परन्तु जीवके स्वतः सिद्ध स्वभावभूत वह जीवनमा अनादिकाल मोहनीय कर्मको क्रोध प्रकृतियोंके उदयसे विकृत रहती आई है, अतः मोहनीय कर्मकी उन को प्रकृतियों के यथास्थान यथायोग्य रूपमें होनेवाले उपनाम, क्षय या क्षयोपशमसे जब वह शुद्ध रूपमें विकासको प्राप्त होती है तत्र उसे निश्चयधर्मरूपता प्राप्त हो जाती है । इसका अन्तर्भाव आस्रव और बन्चतत्व में नहीं होता, क्योंकि जीन के शुद्धस्वभावभूत होने के कारण वह कमके आलव और बन्धका कारण नहीं होती है। तथा इसका अन्तर्भाव संयर और निर्जरा तत्त्व में भी नहीं होता, क्योंकि इसकी उत्पत्ति ही संघर और निर्जरापूर्वक होती है ।
(३) जीवदयाका तीमरा प्रकार अदयाप अशुभ प्रवृत्ति से निवृत्तिपूर्वक होनेवाली दयारूप शुभ प्रवृत्तिके रूपमें व्यवहार है। इसका समर्थन पूर्वपक्षने अपने द्वितीय और तृतीय दौरोंमें आगम प्रमाणों के आधारपर किया है । इसका अन्तर्भाव अदयारूप अशुभ प्रवृत्तिसे निवृत्तिरूप होनेके आधारपर संबर और निर्जराका कारण होनेसे संवर और निर्जरा तत्त्व में होता है व दयारूप पुण्यप्रवृत्तिरूप होनेके आधारपर आस्रव और बन्धका कारण होनेसे आस्रव और बन्धतत्त्वमें भी होता है। क्रमोंके संवर और निर्जरण में कारण होनेसे यह व्यवहारधर्मरूप जीवदया जीवके शुद्ध स्वभावभूत निश्चयधर्मरूप जीवदयाकी उत्पत्ति में कारण सिद्ध होती है।
पुष्यभूत दयाका विशेष स्पष्टीकरण
भव्य और अभव्य दोनों प्रकारके जीव सतत विपरीताभिनिवेश और मिथ्याज्ञानपूर्वक आसक्तियश अदयारूप संकल्पी पापमय अशुभ प्रवृत्ति करते रहते हैं । तथा कदाचित संसारिक स्वार्थवश दयारूप पुष्वमय शुभ प्रवृत्ति भी किया करते हैं। ये जीव यदि कदाचित भदवारूप संकल्पी पापमय अशुभ प्रवृत्ति के साथ सम्यक् अभिनिवेश और सम्यग्ज्ञानपूर्वक कर्त्तव्यवश दयारूप पुण्यमय शुभ प्रवृत्ति करने लगते हैं तो उनके अन्तःकरणमें उस अक्ष्यारूप संकल्पी पापमय अशुभ प्रवृत्तिसे घृणा उत्पन्न हो जाती है और तब वे उस अदयारूप संकल्पी पापमय अशुभ प्रवृत्तिसे सर्वथा निवृत्त हो जाते हैं। इस तरह वह पुण्यभावरूप जीवदया अदमारूप संकल्पी पापमय अशुभ प्रवृत्ति से सर्वथा निवृत्तिपूर्वक होने वाली दयारूप, पुण्यमय शुभ प्रवृत्तिरूप व्यवहार धर्म की उत्पत्ति कारण सिद्ध होती है ।
निश्चयधर्मरूप जीवदयाका विशेष स्पष्टीकरण
निश्चयधर्मरूप जीवक्ष्वाकी उत्पत्ति भय जीव में ही होती है, अभव्य जीन में नहीं । तथा उस भव्यजीव में उसकी उत्पत्ति मोहनीय कर्मके भेद अनन्तानुबन्धी, अप्रत्याख्यानावरण, प्रत्याख्यानावरण और संजयनरूप कषायोंकी को प्रकृतियोंका यथास्थान यथायोग्य उपशम, अय या क्षयोपशम होनेपर शुद्ध स्वभावके रूप में उत्तरोत्तर प्रकर्षको लेकर होती है । इसकी प्रतिक्रिया निम्न प्रकार है
(क) अभव्य और भव्य दोनों प्रकार के जीवोंकी भाववती शक्तिका अनादिकाल से अनन्तानुबन्धी आदि उक्त चारों कषायों को क्रोध प्रकृतियोंके सामूहिक उदयपूर्वक अवाप विभावपरिणमन होता आया है। दोनों प्रकारके जीवोंमें उस अदयारूप विभावपरिणमनकी समाप्ति में कारणभूत क्षयोपशम, विशुद्धि, देशना और