Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 1
Author(s): Vanshidhar Vyakaranacharya, Darbarilal Kothiya
Publisher: Lakshmibai Parmarthik Fund Bina MP
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जयपुर (खानिया) तत्वचर्चा और उसकी समीक्षा
चौथे प्रकारसे जो परिणमन होता है वह स्वभावतः सर्ध्वगमनरूप होता है । जीवकी क्रियावती शक्तिके इन चारों प्रकारसे होनेवाले परिणमनों से पहले प्रकार के परिणमन कोंके आस्रवपूर्वक प्रकृति, प्रदेश, स्थिति और अनुभागरूप चारों प्रकारके बन्ध में कारण होने हैं। दूसरे प्रकारके परिणमन पापमय अशुभ प्रवृत्तिसे निवृत्तिरूप होनसे भन्यजीवमें यथायोग्य कर्मोके रांवरपूर्वक निर्जरणमें कारण होते हैं व पुण्यरूप शुभ प्रवृत्तिरूप होनेसे यथायोग्य फोक आस्रवपूर्वक प्रकृति, प्रदेश, स्थिति और अनुभागरूप धारों प्रकारके बन्धमें कारण होते हैं। तीसरे प्रकारके परिणमन पुण्यरूपता और पापरूपतासे रहित होनेसे केवल सातावेदनीय फर्मक आसवपूर्वक प्रकृति तथा प्रदेश बन्धौ कारण होते हैं और चौथे प्रकारका परिणमन केवल आत्माश्रित होनसे कर्मोके आमव और बन्धमें कारण नहीं होता है और कोक सबर ार मरणपूर्वक उन कमका सर्वथा अभाव हो जानेपर होनेरी उसके ककि संवर मोर निर्जरणका कारण होनेका तो प्रश्न ही नहीं रहता है। जीवकी क्रियावती शक्तिके प्रवृत्तिरूप परिणमनोंका विश्लेषण
जीवकी भाववती शक्तिके हदयके सहारेपर अतस्वथद्धानरूप व मस्तिष्कके सहारेपर अतत्तवज्ञानरूप जो परिणमन होते है उनसे प्रभावित होकर जीवकी क्रियावती शक्तिके आसक्तिवश मानसिक, वाचनिक और कायिक संकल्पी पापमय अशुभ प्रवृत्तिरूप परिणमन होते है । एवं कदाचित संसारिक स्थार्थवा पुण्यमय शुभप्रवृत्तिरूप परिणमन भी होते हैं । इसी तरह जीवकी भाववती शक्ति के हृदयके सहारेपर तत्त्ववानरूप और मस्तिष्कके सहारेपर तत्त्वज्ञानरूप जो परिणमन होते है उनसे प्रभावित होकर जीवको क्रियावती शक्तिके एक तो अशनिवश मानसिक, वाचनिक और कायिक आरम्मी पापमय अशुभ प्रवृत्तिरूप परिणमन होते हैं और दूसरे कर्तव्यवश मानसिक, बाघनिक और कामिक पुण्य मय शुभप्रवृत्तिरूप परिणमन होते हैं।
संसारी जीव आसक्ति, मोह, ममता तथा राग और द्वेषके वशीभूत होकर मानसिक, वाचनिक और मायिक प्रयसिहा जो लोकविरुद्ध हिंसा, झूठ, चोरी तथा पदाकि अनावश्यक भोग और संग्रह रूप क्रियायें ससत करता रहता है वे सभी किवायें संकल्पी पाप कहलाती है। इनमें सभी तरहकी स्वपरहितविघातक क्रिया अन्तर्भूत होती है।
___रांसारी जीव अशक्ति, मजबूरी आदि अनिवार्य परिस्थितियोंवश मानसिक, वाचनिक और कायिक प्रवृतिरूप जो लोकसम्मत हिस अठ, चोरी तथा आवश्यक भोग और संग्ररूप क्रियायें करता है वे सभी क्रिया आरम्भी पाप कहलाती हैं। इनमें जीवनका संचालन, फूटम्बका भरण-पोषण तथा धर्म, संस्कृति, समाज, राष्ट्र और लोकका संरक्षण आदि उपयोगी कार्योको सम्पन्न करने के लिये नीतिपूर्वक की जानेवाली असि, मषि, कृषि, सेवा, शिल्प, वाणिज्य तथा अनिबार्य भोग और संग्रहरूप क्रियायें अन्तर्भूत होती है।
संसारी जीव जितनी परहितकारी मानसिक, वानिक और कायिक क्रियायें करता है वे सभी क्रियायें पुण्य बहलाती है | इस प्रकारको पुण्यरूप क्रियायें दो प्रकारको होती है-एक तो सांसारिक स्वार्थवाकी जानेवाली पुण्णरूप क्रिया और दूसरी कर्तव्यवशकी जानेवाली पुण्यरूप क्रिया । इनमेंसे कर्तव्यवशकी जानेवाली पुण्यरूप क्रिया ही वास्तविक पुण्य किया है। ऐसी पुण्यक्रियासे ही परोपकार को सिद्धि होती है। इसके अतिरिक्त वीतरागी देवकी आराधना, वीतरायताके पोषक शास्त्रोंका पठन-पाठन, चिन्तन और मनन व वीतरागताके मार्गपर आरूढ़ गुरुओंकी सेवा-भक्ति तथा स्वावलम्बन शक्तिको जामृत करनेवाले व्रताचरण और तश्चरण आदि भी पुण्यक्रियाओंमें अन्तर्भूत होते है।