Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 1
Author(s): Vanshidhar Vyakaranacharya, Darbarilal Kothiya
Publisher: Lakshmibai Parmarthik Fund Bina MP

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Page 430
________________ शंका-समाधान ३ की समीक्षा प्रवृत्तिरूप परिणमनोंसे मनोगुप्ति, वचनगुमि और फायगुप्तिके रूपमें निवृत्तिरूप शुद्ध परिणमन भव्य जीवमें कमोंके संबर और निर्जरणके कारण होते है। जीचकी भाववती शक्तिके न तो शुभ और अशुभ परिणमन कोके आस्रव और बन्धके कारण होते हैं और न ही उसके शुद्ध परिणमन कर्मोंके संवर और निर्जरणके कारण होते हैं । इसमें यह हेतु है कि जीवकी क्रियायती शक्तिका मन, वचन और कायके सह्योगमे जो क्रियारूप परिणमन होता है उसे योग कहते हैं-("कायवाइमनः कर्म योगः" त० स०६-१)। यह योग यदि जीवकी भावबती शक्तिके पूर्वोक्त तत्त्वश्रद्धान और तत्त्वज्ञानरूप शुभ परिणमनोंसे प्रभावित हो तो उसे शुभ योग कहते हैं और वह योग यदि जीवकी भाववती शक्तिके पूर्वोक्त अतत्त्ववद्धान और अतत्त्वज्ञान रूप अशुद्ध परिणमनोंसे प्रभावित हो तो उसे अशुभ योग कहते हैं । ( "शुभपरिणामनिवृत्तो योगः शुभः । अशुभपरिणामनिर्दत्तो योगः अशुभः''-सर्वार्थसिद्धि ६-३) । यह योग हो कर्मोंका आस्रव अर्थात् बन्धका द्वार कहलाता है-("स आसवः" त. सू. ६-२) । इस तरह जीवकी क्रियावती शक्तिका शुभ और अशुभ योगरूप परिणमन ही कोंके आसवपूर्वक प्रकुति, प्रदेश, स्थिति और अनुभाग रूप बन्धका कारण सिद्ध होता है । यद्यपि योगको समरूपता और अशुभरूपताका कारण होनेसे जीवको भाववती दाक्तिके तत्त्वश्रद्धान और तत्वज्ञान रूप सुभ परिणमनोको व अतत्वद्धान और अतत्त्वज्ञान रूप अशुभ परिणामों को भी कोके आस्रवपूर्वक बन्धका कारण मानना अयुक्त नहीं है। परन्तु कर्मोके आस्रव और बन्धका साक्षात् कारण तो योग ही निश्चित होता है। जैसे कोई डाक्टर शीशी में रखी हुई तेजाबको भ्रमवश खकी दवाई समझ रहा . है तो भी तबतक वह तेजाब रोगीकी आँखको हानि नहीं पहुंचाती है जब तक वह डाक्टर उस तेजाबको रोगीकी आँख में नहीं डालता है और जब डाक्टर जरा तेजाबको रोगीको खमें डालता है तो तत्काल वह तेजाब रोगोकी आँखको हानि पहुँचा देती है। इसी तरह औखकी दवाईको आँखकी दबाई समझकर भी जब तक डाक्टर उसे रोगीकी आँख में नहीं डालता है तब तक वह दवाई उस रोगीकी आँखको लाभ नहीं पहुँचाती है। परन्तु जब डाक्टर उस दवाईको रोगीकी आँखमें डालता है तो तत्काल वह दवाई रोगीकी आँखको लाभ पहुंचा देती है । इससे निर्णीत होता है कि जीवकी क्रियावती शक्तिका शुभ और अशुभ योगरूप परिणमन ही आरव और बन्धका कारण होता है । इतना अवश्य है कि जीवकी भाववती शक्तिका हृदयके सहारेपर होनेवाला तत्त्वश्रद्धान रूप शुभ परिणमन या अतत्त्वश्रद्धानरूप अशभ परिणमन व जीवकी भाववती शकिका मस्तिष्कके सहारेपर होनेवाला तत्त्वज्ञानरूप शुभपरिणमन या अतत्वज्ञानरूप अशुभ परिणमन भी योगकी शुभरूपता और अशुभरूपतामें कारण होने परम्परया आसव और बन्धमें कारण माने जा सकते है। परन्तु भास्रव और बन्धमे साक्षात् कारण तो योग ही होता है। इसी प्रकार जीवकी क्रियावती शक्तिके योगरूप परिणमनके निरोधको ही कर्मके संबर और निर्जरणमें कारण मानना युक्त है-"आसवनिरोधः संवरः" त० सू०९-१) जीवको भाववती शक्तिके मोहनीय कर्मक यथासम्भव उपशम, वय या क्षयोपशममें होनेवाले स्वभावभूत शुद्ध परिणमनोंको संबर और निर्जराका कारण मानना युक्त नहीं है, क्योंकि भाषवती शक्तिके स्वभावभत शुद्ध परिणमन मोहनीयकर्मफे यथासम्भव उपशम, क्षय या क्षयोपशमपूर्वक होने के कारण सवर और निर्जराके कार्य होनेसे कर्मोंके संबर और निर्जरणमें कारण सिद्ध नहीं होते हैं। एक बात और है कि जब जीवकी क्रियावती शक्तिके योगरूप परिणमनोंसे कर्मोंका आम्रव होता है तो कर्मों के संवर और निर्जरणका कारण योगनिरोधको ही मानना युक्त है। यही कारण है कि जिस जीव गुपस्थानक्रमसे जितना-जितमा योगका निरोध होता जाता है उस जीवमें यहां उतना-उतना

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