Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 1
Author(s): Vanshidhar Vyakaranacharya, Darbarilal Kothiya
Publisher: Lakshmibai Parmarthik Fund Bina MP
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जयपुर (खानिया) तत्त्वचर्चा और उसकी समीक्षा
प्रकृतियों के यथायोग्य उपशम, क्षय या क्षयोपशम में कारण होती है। इस तरह उक्त व्यवहारधर्मरूप दया भव्यजीव में कर्मो के संवर और निर्जरण में कारण सिद्ध होती है। इतनी बात अवश्य है कि भव्यजीवकी उस व्यवहारधर्मरूप प्रामें जितना पुण्यस्य दयारूप प्रवृत्तिका अंश विद्यमान रहता है वह सो कर्मोक आस्रव और बन्धका ही कारण होता है तथा उस व्यवहारधर्मरूप दयाका संकल्पी पापमय अवारूप प्रवृत्ति से होनेवाली सर्वथा निवृत्तिका अंश मौके संवर और निर्जरणका कारण होता है । द्रश्यसंग्रह ग्रन्थकी गाथा ४५ में जो व्यवहारचारित्रका लक्षण निर्धारित किया गया है उसके आधारपर व्यवहारधर्मरूप दयाका स्वरूप स्पष्ट रूप से समझ में आ जाता है। वह गाथा निम्न प्रकार है
अहा विणिवित्ती सुहे पवित्तीय जाण चारितं । वद समिदिगुतिरूवं ववहारणया दु जिणभणियं ॥ ४५ ॥
अर्थ-अशुभसे निवृत्तिपूर्वक होनेवाली शुभमें प्रवृत्तिको जिन भगवानने व्यवहारचारित्र कहा है | ऐसा व्यवहाराचारित्र व्रत समिति और गुप्तिरूप होता है।
इस गाथामें व्रत, समिति और गुप्तिको व्यवहारचारित्र कहने में हेतु यह है कि इनमें अशुभसे निवृत्ति और शुभ प्रवृत्तिका रूप पाया जाता है। इस तरह इस गाथासे निर्णीत हो जाता है कि जीव पुष्यरूप atternet जब तक पापरूप अदया साथ करता है तब तक तो उस दयाका अन्तर्भाव पुण्यरूप क्या होता है और वह जीव उक्त पुण्यरूप जीवदयाको जब पापरूप अदमासे निवृत्तिपूर्वक करने लग जाता है तब वह पुण्यभूतदया व्यवहारधर्मका रूप धारण कर लेती है, क्योंकि इस दमासे जहाँ एक ओर पुष्य प्रवृत्तिरूपता के आधारपर कमका आस्रव और बन्ध होता है वहाँ दूसरी ओर उस दयासे पापप्रवृत्तिसे निवृत्तिरूपताके आधारपर भव्य जीव में कर्मोका संबर और निर्जरण भी हुआ करता है। व्यवहारधर्मरूप दयासे कर्मोंका संबर और निर्जरण होता है इसकी पुष्टि आचार्य वीरसेनके द्वारा जयधवला के मंगलाचरणको व्याख्यामें निर्दिष्ट निम्न वचनसे होती है
"सुह-सुद्धपरिणामेहिं कम्मक्खयाभावे तक्खयाणुववत्तीदो"
अर्थ- शुभ और शुद्धके रूपमें मिश्रित परिणामोसे यदि कर्मक्षय नहीं होता हो तो कर्मक्षयका होना असंभव हो जायेगा ।
आचार्य वीरसेनके वचन में "सुह सुद्धपरिणामेहि" पदका ग्राह्य अर्थ
आचार्य वीरसेनके उक्त वचनके "सुह- सुद्धपरिणामेहि' पदमें 'सुह' और 'सुद्ध' दो शब्द विद्यमान हैं । इनमें से 'सुह' शब्दका अर्थ भव्य जीवकी क्रियावती शक्तिके प्रवृत्तिरूप शुभ परिणमनके रूपमें और 'सुख' शब्दका अर्थ उस भव्य जीवको क्रियावती शक्तिके अशुभसे निवृत्तिरूप शुद्ध परिणमनके रूपमें ग्रहण करना ही युक्त है । 'सुह' शब्दका अर्थ जीवको भाववती शक्ति के पुण्यकर्मके उदय में होनेवाले शुभ परिणामके रूप में और 'सुद्ध' शब्द का अर्थ उस जीवको भाववती पाक्तिके मोहनीय कर्म के यथायोग्य उपशम, क्षय या क्षयोपशम में होनेवाले शुद्ध परिणमनके रूपमें ग्रहण करना युक्त नहीं है। आगे इसी बात को स्पष्ट किया जाता है---
rtant foयावती शक्ति के मानसिक, वाचनिक और कायिक शुभ और अशुभ प्रवृत्तिरूप परिणमन कर्मोके मात्र और बन्धके कारण होते है और उसी क्रिवाती शक्ति के मानसिक, वाचनिक और कायिक उस