Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 1
Author(s): Vanshidhar Vyakaranacharya, Darbarilal Kothiya
Publisher: Lakshmibai Parmarthik Fund Bina MP

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Page 428
________________ शंका-समाधान ३ की समीक्षा यहाँ इतना विशेष ज्ञातव्य है कि उनत भारम्भी पाप भी यदि आसक्ति आदिवे वशीभूत होकर किये जाते है तथा पुष्य भी यदि अहंकार आदिके वशीभूत होकर किये जाते हैं तो उन्हें संकल्पी पाप हो जानना चाहिए। संसारी जीवकी क्रियावती शक्तिके दया और अदया रूप परिणमनोंका विवेचन ऊपर स्पष्ट किया जा चुका है कि जीवकी भाववती याक्तिका चारित्रमोहनीय कर्मके भेद अनन्तानुबन्धी आदि चारों कषायोंकी क्रोध प्रकृतियोंके सदयौ अदयारूप विभाव परिणमन होता है व उन्हीं क्रोधप्रकुतियोंके यथास्थान यथासम्भव रूपमें होनेवाले उपशम, क्षय या क्षयोपशममें दयारूप स्वभाव परिणमन होता है । यहाँ जीवकी क्रियायती शक्तिके मानसिक, वाचनिक और कायिक परिणमनोकै विषयमें यह बतलाना है कि जीव द्वारा परहितकी भावनासे की जानेवाली क्रियायें पुण्यके रूपमें दया कहलाती है और जीन द्वारा परके अहितकी भावनासे की जानेवाली क्रियायें संकल्पी पापके रूपमें अदया कहलाती है। इनके अतिरिक्त जीवकी जिन क्रियाओंमें परके अहितकी भावना प्रेरक न होकर केवल स्वहितकी भावना प्रेरक हो, परन्तु जिनसे परका अहित होना निश्चित हो वे क्रियायें भारतीतापके रूपमें अश्या कहलाती हैं। जैसे एक नयक्ति द्वारा अनीतिपूर्वक दूसरे व्यक्तिपर आक्रमण करना संकल्पी पापरूप अदया है। परन्तु उस दूसरे व्यक्ति द्वारा आत्मरक्षाके लिये उस आक्रमक व्यक्तिपर प्रत्याक्रमण करना मारम्भी पापरूप अदया है। यहाँ इतना विशेष जानना चाहिए कि जीवकी पुण्यमय क्रिया संकल्पी पापमय क्रियाक साथ भी सम्भव है और आरम्भो पापमय क्रियाके साथ भो सम्भव है, परन्तु संकल्पी और आरम्भी दोनों पापरूप क्रियाओंमें जीदकी प्रवृत्ति एक साथ नहीं हो सकती है क्योंकि संकल्पी पापरूप क्रियाओं के साथ जो आरम्भी पापरूप क्रियायें देखने में आतो है उन्हें वास्तवमें संकल्पी पापण क्रियायें ही मानना युक्तिसंगत है । इस तरह संकल्पी पापरूप क्रियाओंके सर्वथा त्यागपूर्वक जो आरंभी पापरूप क्रियायें की जाती हैं उन्हें ही वास्तविक आरम्भी पापरूप क्रियायें समझना चाहिए। व्यवहार धर्मरूप दयाका विश्लेषण और कार्य ऊपर बतलाया जा चुका है कि जीव द्वारा मानसिक, वाचनिक और कायिक संकल्पीपापमय अदयारूप अशभ क्रियाओंके साथ परहितकी भावनासे की जानेवाली मानसिक, वाचनिक और कायिक शुभ क्रियायें पुण्यने रूपमें दया कहलाती हैं और वे कर्मोक आस्रव और बन्धका कारण होती हैं। परन्तु मध्य और अभव्य दोनों प्रकारके जीवों द्वारा कम-से-कम मानसिक, वाचनिक और कायिक संकल्पी पापमय अदयारूप अशुभ विवाभोसे मनोगुप्ति, बचनगुप्ति और कायगुप्तिके रूपमें होनेवाली सर्वथा निवृत्तिपूर्वक जो मानसिक, वाचनिक और कायिक दयाकै रूपमें पुण्यमय शुभ क्रियायें की जाने लगती है वे क्रियायें ही व्यहारधर्मरूप दया कहलाती हैं । इसमें हेतु यह है कि उक्त संकल्पी पापमय अश्वारूप अशुभ क्रियाओंसे निवृत्तिपूर्वक को जानेवाली पुण्यभूत दया भव्य और अभय दोनों प्रकारके जीवोंमें क्षयोपशम, विशुद्धि, देशना और प्रायोग्य लब्धियोंके विकासका कारण होती है तथा भक्ष्य जीवमें तो वह इन लब्धियोंके विकासके साथ आत्मोन्मुखतारूप करणलब्धिके विकासका भी कारण होती है जो करणलब्धि प्रथमतः मोहनीयकर्मके भेद दर्शनमोहनीय कर्म की यथासंभय रूपमें विद्यमान मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यशकुतिरूप तीन व मोहनीयकर्मके भेद चारित्रमोहनीयकर्मको अनन्सानुबम्धी कवायरूप क्रोध, मान, माया और लोभरूप चार इस तरह सात स०-३१

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