Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 1
Author(s): Vanshidhar Vyakaranacharya, Darbarilal Kothiya
Publisher: Lakshmibai Parmarthik Fund Bina MP

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Page 433
________________ जयपुर (खानिया) तत्त्वचर्चा और उसकी समीक्षा (३) अभव्य और भव्य मिथ्यादृष्टि जीव उक्त संकल्पीपापमय अदयारूप अशुभ प्रवृतिका मनोति चचनगुप्ति और काय गुप्तिके रूप में सर्वथा त्याग कर यदि अक्तिवश होनेवाले मानसिक, वावनिक और काकि आरंभीपापमय अदयारूप अशुभ प्रवृत्तिके साथ कर्तव्यवदा मानसिक, वाचनिक और कायिक पुण्यमय दयारूप शुभ प्रवृत्ति करने लगते हैं तो भी वे कर्मीका मानक और बच ही किया करते हैं । २४६ (४)अभव्य और भव्य मिध्यादृष्टि जीव यदि उक्त संकल्पोपापमय अदयारूप अशुभ प्रवृत्ति उक्त प्रकार सर्वथा त्यागपूर्वक उक्त आरम्भ पापमय अवारूप अशुभ प्रवृत्तिका भी मनोगुप्ति, बचनगुप्ति और काय गुप्तिके रूप में एक देश अथवा सर्व देश त्याग कर कर्तव्यवश मानसिक, वाचनिक और कायिक पुण्यमय दारूण शुभ प्रवृत्ति करने लगते हैं तो भी वे कमोंका आलव और बन्ध ही किया करते हैं । (५) अभव्य और भव्य मिध्यादृष्टि जोव उक्त संकल्प पापमय प्रदयारूप अशुभ प्रवृत्तिका सर्वथा त्याग कर उक्त आरम्भीपागमय अदयारूप अशुभ प्रवृत्ति के साथ कर्त्तव्यवश पुण्यमय दयारूप शुभ प्रवृत्ति करते हुए अथवा उक्त संकल्पीगापमय अदयारूप अशुभ प्रवृत्तिका सर्वथा व उक्त आरंभीपापमय अदयारूप अशुभ प्रवृत्तिका एकदेश या सर्वदेश त्याग कर कर्तव्या पुण्यमय शुभ प्रवृत्ति करते हुए यदि क्षयोपशम, विशुद्धि, arer और प्रयोग्य लब्धियोंका अपने में विकास कर लेते हैं तो भी वे कमोंका आस्रव और बन्ध हो किया करते हैं। (६) यतः मिथ्यात्व गुणस्थानके अतिरिक्त सभी गुणस्थान भव्य जीवके ही होते हैं अभय जीवके नहीं, अतः जो भव्य जीव सासादन सम्यग्दृष्टि हो रहे हों उनमें भी उक्त पाँचों अनुच्छेदोंमेंसे दो, तीन और चार संख्यक अनुच्छेदों में प्रतिपादित व्यवस्थाएं यथायोग्य पूर्वसंस्कारवदा या सामान्यरूपसे लागू होती हैं तथा अनुच्छेद तीन और चार प्रतिपादित व्यवस्थाएँ मिथ्यात्व गुणस्थानकी ओर झुके हुए सम्यग्मिथ्यादृष्टि rathara भी लागू होती हैं। सासादन सम्यग्दृष्टि जोवों में अनुच्छेद एकमे प्रतिपादित व्यवस्था इसलिए लागू नहीं होती कि वे जो एक तो केवल संकल्पीयापभत्र अदयारूप अशुभ प्रवृत्ति कदापि नहीं करते हैं व उनकी प्रवृत्ति अबुद्धिपूर्वक होने के कारण पृष्यमय दयारूप प्रवृत्ति भी सांसारिक स्वार्थवश नहीं करते हैं । तथा उनमें अनुच्छेद पांच में प्रतिपादित व्यवस्था इसलिए लागू नहीं होती कि वे अपना समय व्यतीत करके नियमसे मिथ्यात्व गुणस्थानको ही प्राप्त करते हैं। इसी तरह मिध्यात्व गुणस्थानकी ओर झुके हुए सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवों में अनुच्छेद एक और दोगें प्रतिभारित व्यवस्थाएँ इसलिए लागू नहीं होतीं क्योंकि उनमें संकल्पोपापमय अमरूप अशुभ प्रवृत्तिका अवथा अभाव रहता है तथा उनमें अनुच्छेद पाँचको व्यवस्था इसलिए लागू नहीं होती कि वे भी मिध्यात्व गुणास्थानकी ओर झुके हुए होने के कारण अपना समय व्यतीत करके मिथ्यात्व गुणस्थानको ही प्राप्त करते हैं । इस तरह सासादन सम्यग्दृष्टि और मिथ्यात्व गुणस्थानकी ओर झुके हुए सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीव सतत यथायोग्य कमका आलव और बन्ध ही किया करते हैं । यहाँ यह ध्यातव्य है कि सासादन] सम्यग्दृष्टि जीवोंके साथ सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंकी प्रवृत्तियों भी अबुद्धिपूर्वक हुआ करती हैं । (७) उपर्युक्त जीवोंसे अतिरिक्त जो भव्य मिध्यादृष्टि जीव और सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवसम्यक्त्व प्राप्तिको ओर झुके हुए हों अर्थात् राभ्यत्रत्व प्राप्ति में अनिवार्य कारणभूत करणलब्धिको प्राप्त हो गये हों वे नियमसे यथायोग्य कर्मो का भाव और बन्ध करते हुए भी दर्शनमोहनीय कर्मकी यथासम्भवरूपमें विद्यमान मिथ्यातत्व,

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