Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 1
Author(s): Vanshidhar Vyakaranacharya, Darbarilal Kothiya
Publisher: Lakshmibai Parmarthik Fund Bina MP

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Page 425
________________ २३८ जयपुर (खानिया) तत्त्वचर्चा और उसकी समीक्षा प्रायोग्य लब्धियोंके विकासको योग्यता स्वभावतः विद्यमान है । भव्य जीवों में तो उस अदयारूप विभाव परि तिकी समाप्तिमें अनिवार्यकारणभूत आत्मोन्मुखतारूप करणलब्धिके विकासको योग्यता भी स्वभावतः विद्यमान है। इस तरह जिरा भव्य जीवमें जब क्षयोपशम, बिशुद्धि, देशना और प्रायोग्य लब्धियोंका विकास हो जानेपर उक्त करणलब्धिका भी विकास हो जाता है तब सर्वप्रथम उस करणलब्धिके बलसे उम भन्य जीवमें मोहनीय कर्मके भेद दर्शनमोहनीय कर्मकी यथासम्भवरूपमें विद्यमान मिथ्यात्व, सम्यग्मिध्यात्व और सम्यकप्रकृतिरूप तोम प्रकृतियोंका व चारित्रमोहनीयकम प्रयग भेद अनन्तानुबन्धी कषायको नियमसे विद्यमान मान, माया और लोभ प्रकृतियों के साथ क्रोच प्रकृतिका भी यथायोग्य उपशम, क्षय या क्षयोपशम होनेपर चतुर्थ गणस्थानके प्रथम समय में उसकी उस भावनती शक्तिका शुद्ध स्वभावभूत निश्चयधर्मके रूपमें एक प्रकारकी जीवदयारूप परिणमन होता है। (ख) इराके पश्चात् उरा भव्य जीवमें यदि उस आत्मोन्मुखताका करणलब्धिका विशेष उत्कर्ष हो जावे तो उसके बलमे उसमें चारित्रमो नीय कर्भके द्वितीय भेद अप्रत्याख्यानावरण कषायकी नियमरो विद्यमान मान, मामा और लोभ प्रकृतिगोरे स. ध सिमामी क्षोनशन होनेपर पनमगुणस्थानके प्रथम समयमें उसकी उस भाववती शक्तिका शुद्ध स्वभावभूत निश्चयधर्म के रूपमे दूसरे प्रकारकी जीवदयारूप परिणमन होता है। (ग) इसके भी पश्चात् उस भश्य जीवमें यदि आत्मोन्मुखता रूप करणलब्धिका और विशेष उत्कर्ष हो जाये तो उसके बलसे उसमें चारित्र-मोहनीयकर्मके तृतीय भेद प्रत्याख्यानावरण कषायकी नियमसे विद्यमान मान, माया और लोभ प्रकृतियोंके साथ क्रोध प्रकृतिका भो क्षयोपशम होनेपर सप्तम गुणस्थानके प्रथम समयमें उसकी उस भाववती शक्तिका शुद्ध स्वभावभूत निश्चयधमक रूपमें तीसरे प्रकारको जीवदयारूप परिणमन होता है। यहां यह ज्ञातव्य है कि सप्तम गुणस्थानको प्राप्त जीव सतत सप्तमसे षष्ठ और षष्ठसे सप्तम दोनों गुणस्थानों में अन्तर्मुहूर्त कालके अन्तरालसे झुलेकी तरह झूलता रहता है । (घ) उक्त प्रकार सप्तमसे षष्ठ और षष्ठरी सप्तम दोनों गुणस्थानोंमें झुलते हुये उस जीयमें यदि सप्तमगुणस्थानों पूर्व ही दर्शनमोहनीय कर्मको उक्त तीन और चारित्रमोहनीय कर्म के प्रथम भेद अनन्तुबन्धी कषायकी उक्त चार इन सात प्रकृतियांका उपशम या क्षय हो चुका हो अथवा सप्तम गुणस्थानमें ही उनका उपवाम या शय हो जावे तो उसके पश्चात् वह जीव उस आत्मोन्मुखतारूप करणलब्धिका सप्तम, अष्टम और नवम गुणस्थानोंमें क्रमशः अधःकरण, अपूर्वकरण और भनिवृत्तिकरणके रूप में और भी विशेष उत्कर्ष प्राप्त कर लेता है और तब नवम गणस्थानमें ही उस जीवमें चारित्रमोहनीय कर्मके उक्त द्वितीय और सतीय भेदरूप अप्रत्याख्यानावरण और प्रत्याख्यानावरण कषायोंकी क्रोध प्रकृतियों के साथ चारित्रमोहनीयकर्मके ही चतुर्थ भेद संज्वलन कषायकी क्रोष प्रकृतिका भो उपशम या क्षय होनेपर उस जीवको उस भाववती शक्तिका शुद्ध स्वभावभूत निश्चयधर्मके रूपमें चौथे प्रकारको जीवदयारूप परिणमन होता है। इस विवेचनका तात्पर्य यह है कि यद्यपि भव्य और अभय दोनों प्रकारके जीवोंको भाववती शाक्तिका अनादिकालसे चारित्रमोहनीयकर्मके भेद अनन्तानुबन्धी आदि चारों कषायोंकी क्रोध प्रकृतियोंके सामूहिक उदयपूर्वक अदयारूप विभावपरिणमन होता है. परन्तु जब जिस भव्य जीवको उस भाबवती शक्ति अदयारूप विभाव परिणमन यथास्थान उरा-उस क्रोध प्रकृतिका यथासंभव उपशम, क्षय या क्षयोपशम होनेपर यथायोग्यरूपमें समाप्त होता जाता है तब उसके बलसे उस जीवकी उस भाववतोशक्तिका उत्तरोत्तर विशेषता

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