Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 1
Author(s): Vanshidhar Vyakaranacharya, Darbarilal Kothiya
Publisher: Lakshmibai Parmarthik Fund Bina MP
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शंका-समाधान २की समीक्षा
(छ) उक्त अनन्तानुबन्धी कषायके उपशम, क्षय अथवा क्षयोपशममें उक्त निश्चय मिथ्याचारित्रके अभावके साथ चारित्रमोहनोयकर्मके ही भेद अप्रत्याख्यानावरण आदि कषायोंके उदयम जीवकी चारित्ररूप भाववती शक्तिके विशिष्ट प्रकारके विभाव परिणमनके रूपमें निश्चम अविरतिरूप आत्मस्थिति हुआ करती है ।
(ज) अनन्तानुबन्धी कषायके उपशम, क्षय अथवा क्षयोपशममें उक्त निश्चय मिथ्याचारित्रके अभावके साथ अप्रत्याश्यानतरण कषायके म्योपशममें जीवको चारित्ररूप भाववती शक्तिके स्वभाव परिणमनके रूप में निश्चयदेशविरतिरूप आत्मस्थिति हुआ करती है।
(झ) अनन्तानबन्धी कषावके उपराम, क्षय या क्षयोपशममें उक्त निश्चय मिथ्याचारित्रके अभाव साथ अप्रत्याख्यानावरण और प्रत्याख्यानावरण कषायोंके क्षयोपशममें जीव की चारित्ररूप भाववती शक्तिके स्वभाव परिणमनके रूपमें निश्चय सर्वविरतिरूप आत्मस्थिति हुआ करती है ।
(ट) सम्पूर्ण चारित्रमोहनीय कर्म के उपशममें जीवको बारित्ररूप भाववती शक्तिके स्वभाव परिणमनके रूपमें निश्चय औपशामिक चारित्ररूप आत्मस्थिति हुआ करती है। इसे यथाख्यातचारित्र भी कहा जाता है।
(ठ) सम्पूर्ण चात्रिमोहनीय कर्मके क्षयमें जीवको चारित्ररूप भाववती शक्तिके स्वभाव परिणमनके रूपमें निश्चय क्षायिकचारित्ररूप आत्मस्थिति हुआ करती है । इसे भी मथाख्यातचारित्र' कहा जाता है । - इसी प्रकार रत्नकरण्डनावकाचरके पद्य ३ का आशय व्यवहार रूपमें भी इस रूप ग्रहण करना चाहिए कि जीवको जो भाववती और क्रियावती ये दो शक्तियाँ हैं उनमें भाववती शक्तिका एक परिणमन तो मस्तिष्कके सहारेपर च्यवहार मिथ्याज्ञान और व्यवहार सम्यग्ज्ञान रूप होता है और दूसरा परिणमन मन (हृदय) के सहारेपर व्यवहार मिध्यादर्शन और व्यवहार सम्यग्दर्शन रूप होता है तथा क्रियावती शक्तिका परिणमन भो मन, वचन और कायके सहारेपर व्यवहार मिथ्याचारित्र और व्यवहार सम्यक्चारित्र रूप होता है । इनकी व्यवस्था निम्न प्रकार है।
(क) जीवकी भाववती शक्तिका मस्तिष्कके सहारेपर व्यवहार मियाज्ञानके रूपमें ऐसा परिणमन होता है कि जीव लत्त्वको अतत्त्व और अतत्त्वको तत्व समझता रहता है तथा वीतरागी देव, वीतरागताके पोषक शास्त्र और वीतरागताके मार्गपर आरुन गुरुको अहितकर व सरागी देव, सरागताके पोषक शास्त्र और ससमताके मार्गपर आरून गुरुको हितकर समझता रहता है | इसे जीवका अज्ञानभाष कहते हैं । इसी तरह जीवको भाववती शक्तिका मस्तिष्कके सहारेपर ही व्यवहार सम्यग्ज्ञान के रूपमें ऐसा परिणमन होता है कि जीव तत्त्वको तत्म और अतत्त्वको अतस्व समझने लगता है तथा घीतरागी देव, वीतरागताके पोषक शास्त्र और वीतरागताके मार्गपर आरुढ गरुको हितकर व सरागी देव सरागताके पोषक शास्त्र और सरागताके मार्गपर आरूढ़ गुरुको हितकर समझने लगता है उसे जीवका ज्ञानभाव कहते हैं ।
(ख) जीवकी भाववती शक्तिका हृदयके सहारेपर व्यवहारमिथ्यादर्शन के रूपमें ऐसा परिणमन होता है कि जीव तत्त्वमें अनास्था व अतत्त्वमें आस्था रखता है तथा वीतरागी देव, दीतरागताके पोषक शास्त्र और वीतरागताके मार्गपर आरूढ गुममें अनादर भाव और भरागी देव, सरायताके पीपक शास्त्र और सरागताके मार्गपर आरूढ़ गुरुमें आदर भाव रखता है। इसे जीवका एकान्त, विपरीत, विनय और संशय
स०-२७