Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 1
Author(s): Vanshidhar Vyakaranacharya, Darbarilal Kothiya
Publisher: Lakshmibai Parmarthik Fund Bina MP

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Page 412
________________ शंका-समाधान २ की समीक्षा २२५ मान्यताओंमेसे पूर्वपक्षको मान्यता सम्यफ हैं और उत्तरपक्षकी मान्यता सम्यक नहीं है, यह प्रश्नोत्तर १ की समीक्षामें स्पष्ट कर दी गई है । तत्य -जिज्ञासुओंको इस पर भी ध्यान देना चाहिए । कथन १२ और उसकी समीक्षा उत्तरपक्षने आगे त. च. पृ० ९० पर मह कथन किया है-"विचार तो कीजिये कि यदि बाह्माम्यन्तर दोनों प्रकारको सामग्री यथार्थ होती तो आचार्य अध्यात्मवृत्त के लिए निमित्त व्यवहार योग्य बाह्य सामग्रोको दृष्टिमें गौण करनेका उपदेश क्यों देते और क्यों मोक्षकी प्रसिद्धिमें अभ्यन्तर वारणको ही पर्याप्त बतलाते । वस्तुतः इसमें संसारी बन रहने और मुक्त होनेका बीज छुपा हुआ है । जो पुरुष बाय सामग्रीको यथार्थ कारण जान अपनी मिथ्या बुद्धि या राग बुद्धि के कारण उसमें लिपटा रहता है वह सदा काल संसारी बना रहता है और जो पुरुष अपने आत्माको ही यथार्थ कारण जान तया व्यवहारसे कारणसंज्ञाको प्राप्त बाह्य सामग्रीमें हेयबुद्धि कर अपने आत्माकी शरण जाता है वह परमात्म पदका अधिकारी होता है।" इसकी समीक्षामें मेरा कहना यह है कि एक तो पूर्वपन मोक्ष की सिद्धिके लिए बाह्य सामग्रीको मयार्थ कारण न मानकर अयथार्य कारण मानता है तथा अन्तरंग सामग्नोको ही यथार्थ कारण मानता है, केवल उसका कहना महकमोक्षसीहा बारा अवार्थकारमाना कल्पनारोपित या कथन मात्र नहीं है, अपितु सहायक होने रूपसे वास्तविकताको लिए हुए ही है। यह बात मैं सस्वचर्चाकी इस समीक्षामें स्थान-स्थान पर स्पष्ट करता माया है। दूसरे, पूर्वपक्षको यह बात मान्य है कि अध्यात्मवृत्त अर्थात लोकोसर जनके लिये उसमें बाह्य सामग्री गौण कारण है और अन्तरंग सामग्री मुख्य कारण है। परन्तु उत्तरपक्षका "वस्तुतः इसमें संसारी बने रहने और मुक्त होने का बीज छिपा हुआ है" इत्यादि कथन एकांगी है, क्योंकि अध्यात्ममें प्रवस जनको भी मोक्ष प्राप्ति के प्रयत्नमें गौणरूपसे तब तक दाद्य सामग्रीका अबलम्बन रहा करता है जब तक वह पूर्ण आत्म-निर्भर नहीं हो जाता है। तात्पर्य यह है कि अध्यात्ममें प्रवृत्त मुनि षष्ठ गुण स्थानमें दृष्टिरूपमें पीछी कमण्डलु आदि बाह्य सामग्रीका अवलम्बन लिए हुए रहता है। तथा सप्तम गुणस्थानसे लेकर दशमगुणस्थान तक अदृष्टरूपमें द्रव्यमनका अवलम्बन उसके रहा करता है। इसके पश्चात् हो वह आत्मनिर्भर होता है। यदि ऐसा न माना जाथ और षष्ट गुणस्थानका मुनि पोछीकमण्डलु आदिको स्वीकार न करे तो वह उस अवस्थामें मुनि ही नहीं रह जायगा । इसी तरह सप्तमसे लेकर दशम तकके गुणस्थानोंमें उसकी सभी प्रवृत्तियोंको म्यमनके आधारपर मानना अनिवार्य है। ऐसा स्वीकार करके भी पूर्वपक्ष उत्तरपक्षको इस बातको मानता है कि 'जो पुरुष बाह्य सामग्रीकी यथार्थ कारण आम अपनी मिथ्याधुद्धि या रागबुद्धिके कारण उससे लिपटा रहता है वह सदा काल संसारी बना रहता है ओर जी पुरुष अपनी आत्माको ही यथार्य कारण जान तथा व्यवहारके कारण संज्ञाको प्राप्त बाह्य सामग्री में हेय वृद्धि कर अपने आत्माकी शरण आता है वह परमात्मा पदका अधिकारी होता है।' तथापि उत्तरपक्षको पूर्वपक्षके समान इस बातका ध्यान रखना अनिवार्य होगा कि मोक्षार्थी पुरुष जब तक जैनागममे निर्धारित उक्त व्यवस्थाके अनुसार प्रवृत्ति नहीं करेगा तब तक वह संसारी ही बना रहेगा। तात्पर्य यह है कि ममक्षको मोक्षमार्गी बनने के लिए सर्वप्रथम आसक्तिवश होनेवाली संकल्पी पापरूप प्रवृत्तियोंका त्यागकर अपने जीवनको केवल अशक्तिवश होनेवाली आरम्मी पापरूप प्रवत्तियोंपर ही निर्भर रखना होगा। इसके पश्चात् अपाक्तिवश होनेवाली आरम्मी पापरूप प्रवृत्तियोंका भी यथाशक्ति क्रमशः एकदेश और सर्वदेशा त्याग करना स०-२९

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