Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 1
Author(s): Vanshidhar Vyakaranacharya, Darbarilal Kothiya
Publisher: Lakshmibai Parmarthik Fund Bina MP

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Page 415
________________ २२८ जयपुर (खानिया) तत्वचर्चा और उसकी समीक्षा वाला नहीं है । प्रस्तुत उत्तरपक्षका कथन ही कार्य-कारणकी बिडम्बना करने वाला है, उसकी सिद्धि करने वाला नहीं । उत्तरपक्ष पूर्व कथनको कार्यकारणकी विम्बना करनेवाला सिद्ध करनेके लिए अपने प्रकृत में ही आगे जो यह लिखा है कि "हम पूछते हैं कि मन्द बुद्धि शिष्य के सामने अध्यापन किया करते हुए अध्यापक के रहने पर शिष्यने अपना कोई कार्य किया या नहीं ? यदि कहो कि उस समय शिष्यने अपना कोई कार्य नहीं किया तो शिष्यको उस समय अपरिणामी मानना पड़ेगा । किन्तु इस दोष से बचने के लिए अपरपक्ष कहेगा कि शिष्यने उस समय भी अध्ययन कार्यको छोड़कर अपना अन्य कोई कार्य किया है।" सो पूर्वपक्षको उत्तरपक्षके इस कथनको स्वीकार करने में तो कोई आपसि नहीं है, परन्तु इसके आगे नहीं पर उत्तरपक्षने जो यह लिखा है कि "तो फिर अपरपक्षको यह मान लेना चाहिए कि उस समय शिष्यका जैसा उपादान था. उसके अनुरूप उसने अपना कार्य किया और उसमें निमित्त व्यवहारके योग्य बाह्य सामग्री निमित्त हुई तो इसे पूर्वपक्ष इस रूप में स्वीकार कर सकता है कि उस मन्दबुद्धि शिष्यने उस समय अध्ययन कार्यको छोड़कर जो अपना अन्य कार्य किया वह अपनी नित्य उपादान अर्थात् कार्योत्पप्तिकी स्वाभाविक योग्यताके अनुरूप हो किया, उसकी उपेक्षा करके नहीं किया, परन्तु वहीं कार्य किया जिसके अनुकूल निमित्त भूत बाह्य सामग्रोका उसे उस समय सहयोग प्राप्त हो गया निमित्तभूत बाह्य सामग्री सहयोगकी उपेक्षा करके नहीं किया | उत्तरपक्षको भी पूर्वोक्त प्रकार अनुभव, इन्द्रियप्रत्यक्ष तर्क और आगम प्रमाणोंके आधार पर ऐसा ही स्वीकार करना उचित है । तात्पर्य यह है कि वस्तु में एक कार्य तो षड्गुणहानिवृद्विके रूप में निमित्तोंको अपेक्षा किये बिना ही एकके बाद एक क्रमसे सतत् स्वभावतः ही होता रहता । इसे आगम में स्वप्रत्यय कार्य कहा गया है। इसके अतिरिक्त दूसरा कार्य भी वस्तुमें हुआ करता है जिसे आगम में स्वरपरप्रत्यय कार्य कहा गया है । यह स्वरपरप्रत्यय कार्य वस्तुमें कई प्रकार से हुआ करता है। जैसे कोई स्वपरप्रत्यय कार्य वस्तुमें कार्योत्पत्सिकी नित्य उपादानभूत नाना स्वाभाविक योग्यताओंका एक साथ सद्भाव रहनेपर भी जिस योग्यता के अनुकूल प्राकृतिक रूपये निमित्तका सहयोग उस समय प्राप्त हो रहा हो उसके अनुसार हुआ करता हूँ । खानमें पड़ी हुई मिट्टी में ऐसा ही स्वपरप्रत्यय कार्य होता रहता है तथा वस्तुओं में जो पुरानापन या जोर्णता आदि अवस्थायें उत्पन्न होती हैं, वे ऐसे ही स्वपरप्रत्यय कार्य में अन्तर्भूत होती हैं। इस प्रकारके कार्य वस्तुओं में बिना का चटके सतत होते रहते हैं। इसी प्रकार वस्तु नाना योग्यताओं का सद्भाव रहते हुए भी प्राकृतिक रूपसे यदाकदा प्राप्त निमित्तोंके सहयोग से और भी विलक्षण कार्य उत्पन्न होते रहते हैं । जैसे भूकम्प आदिसे मकान आदि वस्तुओंका विनष्ट हो जाना आदि कार्य ऐसे ही कार्यमें अन्तर्भूत होते हैं । भूकम्प आदिसे नाना वस्तुओं में जो समान परिणमन न होकर पृथक-पृथक रूपमें परिणमन हुआ करते हैं, उनका कारण उनकी उपादान शक्तियोंकी भिन्नता या निमित्तों के सहयोगकी विविश्ररूपताको जानना नाहिये । इनके अतिरिक्त व्यक्ति पुरुष बलसे संग्रहीत विविध प्रकार के निमित्तोंके राहयोगसे भी यदा-कदा वस्तुओं में अपनी-अपनी उपादान शक्ति रूप स्वाभाविक योग्यताओं के आधारपर भिन्न-भिन्न प्रकारकं विवक्षित स्वपरप्रत्यय कार्य उत्पन्न होते रहते हैं । ऐसे कार्योंमें जो विविधता देखी जाती हैं वह भी उपादानशक्तिको विविधता या मिती विविधताके आधारपर ही आती हैं तथा इनके होने में व्यक्तिको कुशलता और प्रभाव हुआ करता है। भो

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