Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 1
Author(s): Vanshidhar Vyakaranacharya, Darbarilal Kothiya
Publisher: Lakshmibai Parmarthik Fund Bina MP
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जयपुर (खानिया) तवचर्चा और उसको समीक्षा
सकता है, उसको मैं अपने इस समीक्षात्मक कथन में स्पष्ट कर चुका हूँ और वह रूप ऐसा है कि वस्तुमें कार्यकी उत्पत्ति यद्यपि उन वस्तुकी स्वाभाविक योग्यतारूप नित्य उपादान शक्तिके अनुरूप ही होती है, परन्तु तदनुकूल निमित्तभूत बाह्य सामग्री सहयोगपूर्वक ही होती है जिसका आशय यह होता है कि प्रत्येक वस्तु प्रति समय कार्योत्पत्तिको स्वाभाविक योग्यतारूप अनेक उपादान शक्तियों का सद्भाव रहता है, उनमें प्राप्त निमितों के अनुसार कोई एक कार्यकी उत्पत्ति एक समय में हुआ करती है। जैसे बाजारमें विक्रीके लिए रखे हुए कपड़े में कोट, कमोज, कुरता आदि विविध प्रकारके वस्त्र निर्माण की स्वाभाविक योग्यता रूप नाना नित्य उपादान शक्तियाँ विद्यमान रहती हैं. परन्तु उपभोक्ता व्यक्ति अपने अनुकूल एक ही प्रकारका वस्त्र उससे निर्मित करता है या दर्जी निर्मित कराता है और नहीं अनुभव सिद्ध स्थिति है। इसके विपरीत उत्तरपक्षको जो यह मान्यता है कि वस्तु प्रति समय एक ही प्रकारको कार्योंत्पत्ति की योग्यता रहा करती है, इसलिए जिस वस्तुमें जिस प्रकारकी योग्यता जिस समय होगी, उस समय वही कार्य उत्पन्न होगा, निमित्त भी वहाँ अवश्य रहेगा। परन्तु वह उसमें सर्वथा अकिचित्कर ही बना रहेगा, सो यह अनुभव आदि प्रमाणोंके विरुद्ध है । इसे पूर्व में स्पष्ट किया जा चुका है ।
उत्तरपक्षने अपने पक्ष के समर्थन आगे ० च० १० ९० पर ही यह लिखा है 'प्रतमें अपरपक्षक सबसे बड़ी भूल यह है कि निति कार्य तो हुआ नहीं फिर भी वह जिसमें उस समय उसने जिस कार्यकी कल्पना कर रखी है, उसे उस समय उसका उपादान मानता है और इस आधार पर यह लिखनेका साहस करता है कि सुबोध छात्र है पर अध्यापक आदि नहीं मिले, इसलिए कार्य नहीं हुआ । अपरपक्षको समझना चाहिये कि सुबोध छात्र का होना अन्य बात है और छात्रका उपादान होकर अध्ययन क्रियासे परिणत होना अन्य बात है। इसी प्रकार अपरपक्षको यह भी समझना चाहिये कि अध्यापकका अध्यापन रूप क्रियाका करना अन्य बात है और उस क्रिया द्वारा अन्यके कार्य में व्यवहारसे निमित्त बनना अन्य बात है ।' आगे इसकी समीक्षा की जाती है
पूर्वपक्ष ० ० ० ८२ पर सुबोच छात्र और मन्द बुद्धि छावको आधार बनाकर जो कुछ लिखा है उसका अभिप्राय यह है कि सुबोध छात्र में अध्ययन कार्यकी स्वाभाविक योग्यता पाई जाती है, लेकिन अध्यापक आदि निमित्त सामग्रीका सहयोग न मिलने से वह अध्ययन कार्यसे वंचित रह जाता है। और मन्दबुद्धि छात्र में अध्ययनकार्यकी स्वाभाविक योग्यताका ही अभाव रहता है, इसलिए अध्यापक आदि निमित्त सामग्रीका सह्रयोग मिलनेपर भी वह अध्ययन कार्यसे वंचित रह जाता है । उत्तरपक्षने पूर्वपक्षके कपनकी जो बालोचना की है उसमें उसने पूर्वपक्ष के इस अभिप्रायको समझने की चेष्टा करना आवश्यक नहीं समझा है । इसलिये वह अपने वनतव्यमे लिखता है कि 'अपरपक्ष की सबसे बड़ी भूल यह है कि विवक्षित कार्य तो हुवा नहीं, फिर भी वह जिसमें उस समय उसने जिस कार्यकी कल्पना कर रखी है, उसे उस समय उसका उपादान मानता है और इस आधारपर यह लिखनेका साहस करता है कि सुबोध छात्र है पर अध्यापक आदि नहीं मिले, इसलिए कार्य नहीं हुआ। सो इसे मैं उत्तरपक्षकी हो सबसे बेटी भूल मानता हूं, क्योंकि जिस प्रकार आत्मामें सर्वशित्व और सर्वज्ञत्व ये दोनों शक्तियां स्वभावतः मानी गई है, अन्यथा आत्मा कदापि सर्वदर्शी और सर्वज्ञ नहीं बन सकता हूँ फिर उसमें व दोनों शक्तियां समस्त ज्ञानावरण और समस्त दर्शनावरण कमका क्षय हो जानेपर लब्धि रूपमें व्यक्त होती हैं परन्तु वह जो सर्वदशीं ओर सवंश हो रहा है अर्थात् सर्वको देख और जान रहा है वह देखना और जानना सर्वसापेक्ष ही तो हो रहा है। इसी प्रकार पदार्थोंमें जो