Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 1
Author(s): Vanshidhar Vyakaranacharya, Darbarilal Kothiya
Publisher: Lakshmibai Parmarthik Fund Bina MP

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Page 419
________________ २३२ जयपुर (खानिया) तत्त्वचर्चा और उसकी समीक्षा कार्यमें व्यवहारसे निमिस बनना अभ्य बात है"सो इस सम्बन्धमे भी मेरा यह कहना है कि इन दोनों बातोंको अन्य-अन्य मानने में भी पूर्वपशको उत्तरपक्ष के साथ कोई विरोध नहीं है, क्योंकि अध्यापक अध्ययन करनेकी स्वाभाविक योग्यतारूप नित्य उपादान शक्ति बिशिष्ट सुबोध छात्रके समक्ष भी अध्यापन क्रिया करता है और बह अध्ययन करने की स्वाभाविक योग्यतारूप नित्य उपादान शाक्तिसे रहित मन्द बुद्धि छात्रके समक्ष भी अध्यापन क्रिया करता है, परन्तु सुबोध छात्रके प्रति उसको वह क्रिया सार्थक होती है और मन्दबुद्धि छात्रके प्रति उसकी वह क्रिया निरर्थक ही बनी रहती है। इस प्रकार पूर्वपक्ष और उत्तरपक्षके मध्य मान्यताकी इतनी समानता रहते हुए भी सतभेद यही है कि जहां उत्तरपक्ष कार्योत्पत्ति में कार्याव्यवहित पूर्व पर्यायको मुख्य उपादान मानकर निमित्तको सर्वथा अकिंचिरफर मान लेता है वहां पूर्वपला ऐसा मानता है कि कार्योत्पत्तिको स्वाभाविक योग्यतारूप नित्य उपादानशक्ति विशिष्ट वस्तु जय कार्याव्यवहित पूर्व पर्यायल्प परिणत हो जाती है तभी उस बस्तुकी कार्यरूप परिणति होती है, परन्तु उस वस्तुको वह कार्याव्यवहित पूर्व पर्यायकप परिणति तथा उसके पक्ष होमेगाली विलित कार गिनिमि मृत डाका सहयोग मिलनपर ही होती है और न मिलनेपर नहीं होती है-ऐसा मानकर पूर्वपश निमित्त को भी उतना ही सहायक होने रूपसे मुख्य मानता हुआ कार्यकारी ही मानता है। यह विषय पूर्व में भी स्पष्ट किया जा चुका है और प्रश्नोत्तर १ की समीक्षामें भी स्पष्ट किया जा चुका है तथा यह भी स्पष्ट किया जा चुका है कि पूर्वपक्षकी मान्यता ही आगमसम्मत है, उत्तरपक्ष की मान्यता आगमसम्मत नहीं है । इसी प्रसंगमें उत्तरपक्षनेतः च ५०९०-९१पर यह भी कथन किया है कि "अध्यापक अध्यापनकला सीखने के लिये एकान्तमें भी अध्यापनक्रिया कर सकता है और मन्दबुद्धि छात्रके सामने भी इस क्रियाको कर सकता है । पर इन दोनों स्थलोंपर वह निमित्तम्यवहारपदवीका पात्र नहीं। इसमें अध्यापनरूप निमित्त व्यवहार तभी होता है जब कोई छात्र उसे निमित्त कर स्वयं पढ़ रहा है। यह कार्य-कारणव्यवस्था है जो सदा काल प्रत्येक कार्यपर लागू होती है। अतः अपरपक्षने अपने प्रत्यक्ष ज्ञानको प्रमाण मानकर जो कुछ भी यहां लिखा है वह यथार्थ नहीं है, ऐसा समझना चाहिये ।' सो इसका निराकरण यथायोग्य रूपमें मेरे उपयुक्त विवेचनसे ही हो जाता है अर्थात अध्यापक अध्यापनकला सीखने के लिये एकान्त जो अध्यापन किया करता है और मन्दबुद्धि छात्रके सामने भी जो अध्यापन किया करता है तो अध्यापकका उक्त दोनों स्थानोंपर क्रिया करना तो निर्विवाद है। परन्तु एकान्तमें की गई वह क्रिया अध्यापन सीखनेकी दृष्टिसे कार्यकारी ही है, निरर्थक नहीं। इसके अतिरिक्त मन्दबुद्धि छारके सामने अध्यापक जो अध्यापन किया करता है, वह यद्यपि निरर्थक है, क्योंकि मन्दबदि छात्रको उससे कोई लाभ नहीं होता, परन्तु इससे अध्ययन और अध्यापनमें जो निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध बना हुआ है उसपर इसका कोई विरुद्ध प्रभाव नहीं पड़ता है। इस प्रकार उत्तरपक्षका वह लिखना कि यह कार्य कारण व्यवस्था है जो सदा काल प्रत्येक कार्यपर लागू होती है, बिलकुल निरुपयोगी है और अनुभव, युषित और आग मसे विरुद्ध है । आश्चर्य तो यह है कि उत्तरपक्ष कार्यकारणको व्यवस्थाका जैशा प्रतिपादन यहाँ कर रहा है उसका उपयोग वह स्वयं नहीं करता है और न कर ही सकता है । इसलिये कहा जा सकता है कि वह स्वयं अन्धकारमें विचरण कर रहा है और दूसरोंको भी उस अन्धकारमें पटक देना चाहता है। इसपर भी उत्तरपक्ष विचार नहीं करना चाहता है तो न करे परन्तु तत्वजिज्ञासुओंको तो विचार करना ही चाहिये।

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