Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 1
Author(s): Vanshidhar Vyakaranacharya, Darbarilal Kothiya
Publisher: Lakshmibai Parmarthik Fund Bina MP

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Page 421
________________ जयपुर (खानिया) तत्त्वचर्चा और उसकी समीक्षा २३४ कथन १५ और उसकी समीक्षा आगे ८० च० पृ० ९१ पर ही उत्तरपक्षने यह कथन किया है- 'अपरपक्षने प्रवचनसार गाथा २११२१२ की टीकाका प्रमाण उपस्थित कर यह सिद्ध करनेका प्रयत्न किया है कि कहीं कहीं मात्र शरीरको क्रियासे भी धर्म-अधर्म होता है जैसे कि मात्र शरीरकी चेष्टासे संयमका छेद होना' किन्तु अपरपक्षका यह होठ मार्ग न की गई कायचेष्टा के अभावको सूचित करनेके लिये आचार्यने फायचेष्टामात्राधिकृत रायमछेदको बहिरंग-संयम कहा है और इसलिये आचार्यने अल्प प्रायश्चित्त कहा है। स्पष्ट है कि इस वचनसे अपरपक्ष के अभिमतकी सिद्धि नहीं होती, प्रत्युत इस वचनसे तो यही सिद्ध होता है कि आत्मकार्य में साववान व्यक्ति यदि बाह्य शरीरचेष्टाको प्रयत्नपूर्वक भी करता है। तो भी शरीरको क्रिया करने का भाव दोषाधायक माना गया है और यही कारण है कि परमागम में सूत्रोक्त विधिपूर्वक प्रत्येक क्रियाका प्रायश्चित्त कहा है ।" आगे वहीं पर उत्तरपक्षने यह लिखा है- "यहाँ अपरपक्षने जो मणिमाली मुनिकी कथा दी है वह शयन समयकी घटनाएं सम्बन्ध रखती है । उस समय मुनिको कायगुप्ति ऐसी होनी चाहिये थी कि उसको निमित्त कर शरीरखेष्टा नहीं होती, किन्तु मुनि अपनी काय गुप्ति न रख राके। यह दोष हैं। इसी दोषका उद्घाटन उस कथन द्वारा किया गया है। मालूम पड़ता है कि यहाँ अपरपक्ष ऐसे उदाहरण उपस्थित कर यह सिद्ध करना चाहता है कि आरमकार्यमें अन्तरंग परिणामोंके अभाव में भी शरीरको क्रियामास धर्म हो जाता है, जो युक्त नहीं है ।" उत्तरपक्ष के इन दोनों अनुच्छेदोंकी समीक्षामें में यह कहना चाहता हूँ और पहले कहा भी जा चुका है कि जीवित शरीरकी क्रिया दो तरहको होती है— एक तो शरीरके सहयोगसे होनेवाली जीवकी क्रिया और दूसरी जो के सहयोग से होनेवाली शरीरकी क्रिया ! सो पूर्वपक्षने प्रकृत प्रश्न शरीर के सहयोग से होनेवाली tant कियाको लक्ष्यमें रखकर ही उपस्थित किया है, जीवके सहयोग से होनेवाली शरीरको क्रियाको लक्ष्य में रखकर नहीं, क्योंकि पूर्वपक्ष भी सर्वार्थसिद्धि (७-१३) में उद्धृत वियोजयति चासुभिनं स वघेन संपूज्यते' इस वचन के आत्रारपर जीवके सहयोग से होनेवाली शरीरकी क्रियाले आत्मामें धर्म-अधर्म नहीं मानता है । इसलिये उत्तरपक्षको पूर्वपचको इस दृष्टिको ध्यान में रखकर ही प्रकृतमें विचार करना था । अर्थात् जीवके सहयोगले होनेवाली शरीरकी क्रिया तो किसी भी अवस्थामें धर्म-अधर्मका कारण नहीं होती हैं । अब रह जाती है शरीर के सहयोग से होनेवाली जीवकी क्रिया । सो शरीर के सहयोगसे होने वाली जीवकी यह क्रिया दो तरह से होती है - एक तो अन्तरंग मानसिक परिणाम की प्रेरणासे होती है और दूसरी अन्तरंग मानसिक परिणामकी प्रेरणा न होनेपर भी होती है। इनमें से जो शरीर के सहयोग होनेवाली जीवकी क्रिया अन्तरंग मानसिक परि शामकी प्रेरणासे होती है वह तो धर्म-अधर्मका कारण होती ही है, लेकिन जो शरीरके सहयोगसे होनेवाली जीवकी क्रिया अन्तरंग मानसिक परिणामकी प्रेरणा के बिना ही होती है, वह भी धर्म-अधर्मका कारण होती है । इसे लक्ष्य में रखकर ही पूर्वपन त० च० पु० ८३ पर अपना कथन उसकी आलोचनामें जो कुछ उक्त अनुच्छेदों में लिखा है वह अप्रासंगिक और निरर्थक है । कथन १६ और उसकी समीक्षा किया है। इस तरह उत्तरपक्षने आगे त० च० पृ० ९१ पर ही उत्तरपक्षने यह कथन किया है कि 'केवली जिनके पुण्यको निमित्त कर चलने आदि रूप क्रिया होती हैं, इसमें सन्देह नहीं, पर इतने मात्रसे वह मुक्तिकी साधन नहीं मानी

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