Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 1
Author(s): Vanshidhar Vyakaranacharya, Darbarilal Kothiya
Publisher: Lakshmibai Parmarthik Fund Bina MP
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शंका-समाधान २ की समीक्षा
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इस मतभेद के विषय में मैंने प्रश्नोत्तर एककी समीक्षामें यह सिद्ध किया है कि पूर्वपक्ष की मान्यता ही प्रमाणसम्मत है, उत्तरपक्षको मान्यता प्रमाणसम्मत नहीं है । यहाँपर भी मैं संक्षेपमें इस बात को स्पष्ट कर रहा हूँ
उत्तरपक्ष यदि अपने अनुभव पर दृष्टि डाले तो उसे ज्ञात हो जायगा कि यह स्वयं उपादानसे विवक्षित कार्यकी उत्पत्ति के लिये निमित्तभूत बाह्य सामग्रीका बुद्धिपूर्वक अवलम्बन लिया करता है और यदि वह अपने इन्द्रियप्रत्यक्ष से समझना चाहे तो उसे समझ में आ जायगा कि दूसरे व्यक्ति भी उपादानसे विवक्षित कार्यकी उत्पत्ति के लिये निमिलभूत बाह्य सामग्रीका बुद्धिपूर्वक अवलम्बन लेते हुए देखे जाते हैं ।
कार्योत्पत्ति के विषय में अनुभव और इन्द्रिय
कार्य-कारणकी पूर्व पक्षको मान्य उपर्युक्त व्यवस्था निश्चित होनेसे यदि कदाचित् कार्यत्पित्ति न हो तो इसका कारण या तो यह होगा कि वस्तुमें विवक्षित कार्यरूप परिणत होने की स्वाभाविक योग्यता रूप नित्य उपादान शक्तिका अभाव है या यह होगा कि नित्य उपादान शक्तिरूप योग्यताका सद्भाव रहते हुए भी उसमें विवक्षित कार्यकी उत्पत्तिक अनुकूल निभिसभूत बाह्य सामग्रीका सहयोग नहीं मिल रहा है । जैसे यदि छात्र मन्द बुद्धि हूँ अर्थात् उसमें अध्ययन करनेकी fior उपादान शक्ति रूप स्वाभाविक योग्यताका अभाव है तो अध्यापक या पुस्तक आदि निमित्त सामग्रीका सहयोग प्राप्त होने पर भी उसमें अध्ययन रूप विवक्षित कार्यकी उत्पत्ति नहीं होगी । इसपरसे यदि उत्तरपक्ष यह सिद्ध करना चाहे कि इसीलिये तो उपादानके अनुसार कार्य होता है यह सिद्धान्त मान्य किया गया है, तो इसके विषय भी यह बात कही जा सकती है कि यदि छात्र सुबोध है अर्थात् उसमें अध्ययन करनेकी नित्य उपादान-शक्तिका सद्भाव है, लेकिन यदि अध्यापक या पुस्तक आदि निमित्त सामग्रीका सहयोग प्राप्त न न हो तो वह भी अध्ययनकार्य से वंचित रह जायगा। इससे यही निष्कर्ष निकलता है कि अध्ययन के लिए शिष्यका सुबोध होना भी आवश्यक है और अनुकूल निमित्त सामग्रीका सहयोग मिलना भी आवश्यक है । इस तरह विवक्षित कार्यको उत्पत्ति में निमित्त सहायक होने रूपसे कार्यकारी सिद्ध हो जाता है ।
इसी प्रकार यदि उत्तरपक्ष तर्कके आधारपर विचार करे तो उसे ज्ञात हो जायगा कि उपादानसे जो कार्यकी उत्पत्ति होती हुई देखी जाती है वह तदनुकूल निमित्तभूत बाह्य सामग्री के सहयोगपूर्वक ही देखी जाती है और उसके अभाव में कभी नहीं देखी जाती है तथा वह यदि आगमपर भी दृष्टिपात करे तो उसे ज्ञात हो जायेगा कि प्रमेयकमलमार्तण्ड (शास्त्राकार) के पत्र ५२ पर स्पष्ट लिखा है कि नित्य उपादानभूत वस्तुसे अनित्य उपादानभूत कार्याव्यवहित पूर्व पथमिकी उत्पत्ति और उसके अनन्तर पश्चात् होनेवाले कार्यकी उत्पत्ति दोनों हो अनुकूल निमित्तभूत बाह्य सामग्री के सहयोगपूर्वक होती हैं, अन्यथा नहीं । प्रमेयकमलमार्तण्डके वचनका उद्धरण मैंने प्रश्नोत्तर एकको समीक्षा में दिया है ।
इस तरह अनुभव, इन्द्रियप्रत्यक्ष तर्क और आगम - इन सभी प्रमाणोंसे पुष्ट उपर्युक्त विवेचनसे उत्तरपक्षका उसके अपने प्रकृत वक्तव्य में निर्दिष्ट 'अपरपक्षने अपने प्रत्यक्षको प्रमाण मानकर और लौकिक दृष्टिसे दो-तीन दृष्टान्त उपस्थित कर इस सिद्धान्तका खण्डन करनेका प्रयत्न किया है कि उपादान के अपने कार्य के सम्मुख होनेपर निर्मित्तव्यवहारके योग्य बाह्य सामग्री मिलती ही है। किन्तु उस पक्ष का यह समग्र कथन कार्यकारणकी बिडम्बना करनेवाला ही है, उसकी सिद्धि करनेवाला नहीं ।' यह कथन निरस्त हो जाता है तथा यह निर्णीत हो जाता है कि पूर्वपक्षका कथन कार्य-कारणकी सिद्धि करनेवाला हो है उसकी बिडम्बना करने