Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 1
Author(s): Vanshidhar Vyakaranacharya, Darbarilal Kothiya
Publisher: Lakshmibai Parmarthik Fund Bina MP
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शंका-समाधान २ की समीक्षा
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के आधारपर अपरपक्ष जीवित शरीरकी क्रियाओंके स्वयं समीचीन और असमीचीन होनेके विचारका त्याग कर अपने इस विचारको मुख्यता देगा कि प्रत्येक प्राणीको मोक्ष के साधनभूत स्वभाव सम्मुख हुए परिणामोंकी सम्हाल में लगना चाहिए। संसारके छेदका एकमात्र यही भाव मूलकारण है, अन्यथा संसारकी वृद्धि होगी ।' भनिएता है. यह कथन पूर्वपक्षके अभिप्रायको न समझ सकने के कारण ही किया है। यह बात ऊपरके कथनसे स्पष्ट हो जाती है। इसलिए तत्त्वजिज्ञासुओंसे अनुरोध है कि वे पूर्वपक्षके जीवित शरीरकी क्रियाले आत्मामें धर्म मधर्म होता है या नहीं इस प्रश्नका सत्य समाधान मेरे इस समीक्षात्मक विवेचन के प्रकाश में देखनेका प्रयत्न करें।
उत्तरपक्षने अपने उक्त कथनके अन्त में जो यह लिखा है कि 'प्रत्येक प्राणीको मोक्षके साधन भूत स्वभाव सन्मुख हुए परिणामों की सम्हालमें लगना चाहिए । संसारके छेदका एकमात्र यही भाव मूलकारण है, अन्यथा संसारकी वृद्धि होगी ।' यह निर्विवाद है । परन्तु मैं इस विपयमें यह कहना चाहूँगा कि उत्तरपक्ष ने इस बातको स्पष्ट करने का कहीं प्रयत्न नहीं किया है कि मोक्षके साधनभूत स्वभाव सम्मुख हुए परिणामोंकी सम्हाल करनेका उपाय क्या है ? पूर्वपक्षका और मेरा इस सम्बन्ध में यह कहना है कि द्रव्य मन, वचन (मुख) और काय अवलम्बनपूर्वक होनेवाली और जीवको यथायोग्य भाववती और क्रियावती शक्तिके परिमनस्वरूप शुभाशुभ प्रवृत्तियोंसे यथाविधि मनोगुप्ति, वचनगुप्ति और कायगुष्तिके रूपमें निवृत्ति प्राप्त करना ही मोक्षसाधनभूत स्वभावसन्मुख हुए परिणामों की सम्हाल करनेका उपाय है, जिसे उत्तरपक्ष अकिंचित्कर कहकर उपेक्षित करना चाहता है। यह सब पूर्व में विस्तारपूर्वक स्पष्ट किया जा चुका है ।
कमन ४ और उसकी समीक्षा
उत्तरपक्ष ने स० च० पृ० ८७ पर ही लिखा है- 'बाह्य क्रिया धर्म नहीं है, इस अभिप्रायकी पुष्टिमें ही हमने नाटक समयसारके वचनका उल्लेख किया था ।'
इसकी समीक्षा में मेरा कहना इतना ही है कि उत्तरपक्ष का यह कथन तो निर्विवाद है, परन्तु उसने जिस अभिप्रायसे इसको यहाँपर लिखा है उस अभिप्रायकी समीक्षा इसी प्रश्नोत्तरकी समीक्षा में पूर्व में कर चुका हूँ। पूर्वपक्ष भी अपने द्वितीय और तृतीय दौरोंके कथनमें उत्तरपक्ष के उस अभिप्रायको आलोचना की है । तत्व- जिज्ञासुओंको उनपर ध्यान देनेकी आवश्यकता है।
कथन ५ और उसकी समीक्षा
आगे उत्तरपश्चने त० च० पु० ८७ पर ही यह कथन किया है- 'अपरपक्षका कहना है कि क्रियाको तो सर्वथा धर्म-अधर्म हम भी नहीं मानते । तो क्या इसपरसे यह आशय फलित किया जाय कि अपरपक्ष जीवित शरीरकी क्रियाको कथंचित् धर्म-अधर्म मानता हूँ ? यदि यही बात है तो अपरपक्षके इस कथन की कि 'धर्म और अधर्म आत्माकी परिणतियाँ है और ये आत्मामें ही अभिव्यक्त होती है ।' क्या सार्थकता रही ? इसका अपरपक्ष स्वयं विचार करें। यदि यह बात नहीं है तो उस पक्ष को इस बातका स्पष्ट खुलासा करना था ।"
इसकी समीक्षा में मैं प्रथम तो यही कहना चाहता है कि उत्तरपक्षने यह कथन जीवित शरीरको क्रियाके विषय में पूर्वपक्ष के अभिप्रायको विपरीत समझकर ही किया है क्योंकि पूर्व मे स्पष्ट किया जा चुका है।