Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 1
Author(s): Vanshidhar Vyakaranacharya, Darbarilal Kothiya
Publisher: Lakshmibai Parmarthik Fund Bina MP
View full book text
________________
शंका-समाधान २ की समीक्षा
२१३
है वहाँ उत्तरपक्ष उमत कथनके 'जीवित शरीरकी क्रिया' इस वचनका पूर्वपक्ष द्वारा स्वीकृत उक्त अर्थक विपरीत 'जीवके सहयोगसे होनेवाली शरीरकी क्रिया' यह अर्थ स्वीकार करके जीवके सहयोगसे होनेवालो पारीरकी क्रियासे आत्मामें धर्म-अधर्म होने का निषेध करता है। यह सब में पूर्वमें स्पष्ट कर चुका हूँ। तत्वजिज्ञासुओंको तत्वनिर्णय करनेकी दण्टिसे दोनों पक्षोंकी मान्यताभोंके इस अन्तरको समझनेकी आवश्यकता है।
उत्तरपक्षके उक्त कथनकी समीक्षामें मैं दूसरी बात यह कहना चाहता हूं कि आत्मामें होनेवाले धर्म और अधर्म तो दोनों पक्षोंकी मान्यतामें जात्माकी भाववती शक्तिके परिणमन है, परन्तु उनके होनेमें जहाँ पूर्वपक्ष जीवकी ही क्रियावती शक्तिके परिणमनस्वरूप और शरीरके सहयोगसे होनेवाली जीवकी क्रिया रूप जीवित शरीरकी क्रियाको निमित्तकारण मानता है वहाँ उत्तरपक्ष इससे विपरीत जोवके राहयोगसे होनेवाली शरीरकी क्रिया रूप जीवित शरीरकी क्रियाको उसमें निमित्तकारण मानता है। इस तरह दोनों पक्षोंके मध्य मान्यताओंका इतना मतभेद विद्यमान रहनेसे मैं कह सकता हूँ कि उत्तरपक्षके 'परपक्षका कहना है कि आत्माके धर्म-अधर्म के अभिव्यक्त होनेमें जीवित शरीरकी क्रिया निमित्त है सो इसको हमारी ओरसे अस्वीकार कहां किया गया है ? इस कथनको असंगत ही समझना चाहिए, क्योंकि 'जीवित शरीरकी क्रिया' इस वचनका उत्तरपशको जब पूर्वपक्षके मान्य अर्थक विपरीत अर्थ हो अभीष्ट है तो उसके उक्त कथनको असंगत मानना मुक्तियुक्त हो जाता है ।
यद्यपि जीवके सहयोगसे होनेवाली शरीरकी क्रिया आत्माके धर्म-अधर्गक अभिव्यक्त होने में निमित्तभूत और शरीरके सहयोगसे होनेवाली जीवकी क्रियाके अभिव्यक्त होनेमे निमित्त होती है, अतः जीवके सहयोगसे होनेवाली शरीरकी क्रियाको भी आत्माके धर्म-अधर्मके अभिव्यक्त होने में परम्परया निमित्त माना जा सकता है । परन्तु उत्तरपक्ष के कथनसे ऐसा ध्वनित होता है कि वह जीयके राह्योगसे होनेवाली शरीरको क्रिमाको आत्माके धर्म-अधर्मक अभिव्यक्त होनेमें साक्षात् निमित्तकारण ही मानता है जबकि मैं ऊपर यह स्पष्ट कर चुका हूँ कि आत्माके धर्म-अधर्मके अभिव्यक्त होनेमें शरीरके सहयोगसे होनेवाली जीवकी क्रिया ही साक्षात् निमित्त होसी हैं, जीवके सहयोगसे होनेवाली शरीरको क्रिया परम्परया ही निमित्त होती है, साक्षात् नहीं। इस तरह उत्तरपक्षका जीवके सहयोगसे होनेवालो शरीरकी क्रियाको आरमाके धर्म-अधर्मक अभिव्यक्त होने में साक्षात निमित्त मानना असंगत सिद्ध हो जाता है।
इसी तरह उत्तरपक्ष द्वारा मान्य आत्माके धर्म-अधर्मके अभिव्यक्त होनेमें जीवके सहयोगसे होनेवाली शारीरकी क्रियाकी साक्षात् निमित्तताके असंगत सिद्ध हो जानेसे उसका शरीर द्वारा होनेवाली समीचीन और असमीचीन प्रवृत्तियोंके सम्बन्धमें यह खुलासा कर देना आवश्यक है कि आत्माके शुभाशुभ परिणामोंके भाधारपर ही उन्हें समीचीन और असमीचीन कहा जाता है। वे स्वयं समीचीन और असमीचीन नहीं होती।' यह कथन अनावश्यक हो जाता है, क्योंकि पूर्वपक्ष जब जीवके सहयोगसे होनबाली शरीरको क्रियाको आत्माके धर्म और अधर्मके अभिव्यक्त होने में साक्षात निमित्त मानता ही नहीं है तो उसकी समीचीनता और असमीचीनताके विषय में विचार करना निरर्थक सिल हो जाता है।
एक बात और है कि आत्माके धर्म और अधर्मके अभिव्यक्त होने में साक्षात् निमित्तभूत व शरीरके सहयोगसे होनेवाली जीवकी क्रियाको पूर्वपक्ष जीपकी भाववती शक्तिके परिणमनस्वरूप शुभाशुभ मानसिक